पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(१९)
यमज-सहोदरा



किन्तु मेरी झिड़की याफिटकार से निर्लज अबदुल कुछ भी लजित न हुआ और कर्कश स्वर से बोला,-"जनाब! मैं अफरीदी सर्दार मेहरखां का फ़र्मावर गुलाम हूं, चुनांचे उनके हुक्म की तामीली करनाही मेरा फर्ज है।"

मैंने क्रोध से भभककर कहा,-'पाजी, बेईमान! तु अपने "फर्ज" के साथ ही जहन्नुम-रसीदः हो।"

इसके अनन्तर वे सब मुझे घेर कर खड़े होगए और उनके लक्षण से यही जान पड़ने लगा कि वे मुझे मार डालेंगे। अस्तु, मैंने कड़ककर कहा-"निःशस्त्र बैरी को मार डालना, नीच और असभ्य अफरीदियों के लिये लज्जा की बात नहीं है, किन्तु पाजियो! यदि मैं अभी अपनी तल्वार पाऊं तो अकेलाही तुम सभों को काट कर यहीं ढेर कर दूं।"

यह सुनकर उनमें से एकने कहा,-"साहब! हमलोगों की यह मन्शा नहीं है कि नाहक आपके बदन में हाथ लगावें, क्योंकि जिस तरह आपलोग नाहक आदमी का खून करने पर तुले रहते हैं, वैसा इरादा हमारे सरदार का कभी नहीं है, बस, सिर्फ़ हमलोग आपको कैदी की सूरत में अपने सरदार के सामने लेजाया चाहते हैं। क्योंकि हमारे सर्दार का ऐसाही हुक्म है।"

बस, मैंने समझ लिया कि हाथ पैर बंधे रहने और अपने पास हथियार न रहने की अवस्था में इन पाजियों के हाथ से छुटकारा पाना असंमव है! अतएव मैंने विपत्ति के समय धैर्य का अवलंबन किया और उनलोगों की ओर देखकर पूछा,-'मुझे कितनी दूर जाना पड़ेगा?"

यह सुनकर उनमें से एकने कहा,-"यह बात हमलोग नहीं बतला सकते।"

मैंने कहा,-"तो ऐसी अवस्था में यदि मैं तुम लोगों के साथ न जाना चाहूं, तो?"

उसी अफ़रीदी ने कहा,-"तो सुनिए, आपको ज़िन्दा, या मुर्दा हालत में हमलोगों को अपने सर्दार के पास हाज़िर करनाही पड़ेगा; क्योंकि उनका ऐसाही हुक्म है।"

इसके अनन्तर उन सभों ने अपने अपने हथियार मुझे दिखलाए, जिन्हें देखकर मैंने धीरता से कहा,-'अस्तु तुमलोगों का अभिप्राय मैंने समझा, किन्तु यह तो बतलाओ कि हाथ पैर बंधे रहने के कारण