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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/२७

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परिच्छेद]
(२५)
यमज-सहोदरा


हमीदा मेरे सामने आकर खड़ीही हुई थी कि उसके पीछे वह सिपाही भी वहां आकर खड़ा होगया, जिसे मैंने वह याकूती तख्ती दी थी। उसके हाथमें भी एक मशाल थी। सो उसे अपने पीछे देख, हमीदा ने उससे कहा,-"तू बाहर जाकर खड़ा रह और जबतक मैं यहां रहूं कोई भी इस खोह के अंदर आने न पावे।"

इसपर “जो हुक्म हुजूर,"यों कहकर सिपाही उस खोह के बाहर चला गया और मैं हमीदा की ओर और वह मेरी ओर देखने लगी। मानो उस समय दोनो ही यही सोच रहे थे कि पहिले कौन बोले और बातों का सिलसिला किस ढब से प्रारंभ किया जाय! किन्तु जब देर तक मेरा गला न खुलातो हमीदा पत्थर की दीवार के छेद में अपने हाथ की मशाल खोसकर मेरे सामने जमीनही में बैठ गई और बोली, अय जवांमर्द बहादुर! बड़े अफ़सोस का मुकाम है कि मुझ कंबख्त के पीछे आप बड़ी आफत में फसे! आह! मेरी आबरू बचाकर और मेरी ही हिफ़ाज़त के लिये मेरे साथ आकर आप बहुत ही बड़ी मुसीबत में गिरफ्तार हुए। मतलब यह कि इस वक्त मैं आप को जिस हालत में देख रही हूं यह सिर्फ मेरीही बदौलत आप को नसीब हुई है! अफसोस, अफ़सोस! अब मैं आप को अपना कालामुह क्योंकर दिखलाऊं और कौन से लफ़जों में आपसे माफ़ी मांगू!"

उस सुन्दरी के ऐसे आर्द्र और सहानुभूतिसूचक वाक्य से उस कारागार में रहने पर भी मेरा रोम रोम हर्षित होगया और मैंने बड़ी गंभीरता से कहा-" बीबी हमीदा! इस विषय में क्षमा मांगने की क्या आवश्यकता है! अतएव मेरे लिये तुम अपने जीमें कुछ दूसरा विचार न करो और सचजानो कि मुज्ञपर जो कुछ आपदाएं आई हैं, वे सब मेरे कर्मों का फल है! इस में तुम्हारा कोई अपराध नहीं है मेरे मनमें तुम्हारे ऊपर कोई दूसरा भाव नहीं है!"

यह सुनकर हमीदाने कहा,-"शायद आप अपनी इस आफ़त की जड़ मुझे ही समझते होंगे!"

हमीदा की यह बात मुझे बहुतही कडुई लगी! और इसे सुनकर मैने बड़ी कड़ाई के साथ कहा,__

"मैं उतना नीच नहीं हूं, जितना कि तुम मुझे समझ रही हो! अफ़सोस का मुकाम है कि अफ़रीदी कुमारी मेरे हृदय के निर्मलभाव के समझने में सर्वथा असमर्थ है! हमीदा! तुम मुझे ऐसाही नीच