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(२६)
[चौथा
याक़ूतीतख़्ती


समझती हो कि मैं तुम पर संदेह करता होऊंगा!"

मेरी बातों को सुनकर वह सरलहृदया, बीरनारी, हमीदा बहुतही प्रसन्न हुई और मेरे हाथ को पकड़ कर बड़े स्नेहसे कहने लगी,-"सच कहो, क्या तुम्हारे मनमें मुझपर तो कोई संदेह नहीं है!"

मैंने कहा,-"हमीदा! तुम निश्चय जानो, मैं तुम्हें वैसीही आदर की दृष्टिसे देखरहा हूं, जिस दृष्टिसे कि तुम मुझे देखरही हो! बस, तुम अपने कलेजे पर हाथ रखकर मेरे जीकाभी भाव समझलो।"

हमीदा,-"तो सचमुच तुम मुझे बेकसूर समझते हो!"

मैने कहा, "हमीदा! यह तुम क्या कह रही हो तुम सच जानो कि मेरे चित्त में तुम्हारे ऊपर कोई संदेह नहीं है।"

हमीदा- “अब मैं बहुत खुश हुई, लेकिन यह आफत तो तुमपर मेरेही सबब से आई!"

मैंने कहा,-"नहीं, कभी नहीं; तुम तो मुझे लौट जाने के लियेही बराबर कहती रहीं, किन्तु मैंने बलपूर्बक तुम्हारे साथ आने का हठ किया था। अतएव तुम इस विषय में बिल्कुल निरपराधही और मैं केवल अपने कर्मों का फल भोग रहा हूं। हमीदा! जिनकी दृष्टि केवल स्वार्थ के ऊपर लगी रहती है, उनसे कभी परोपकार होही नहीं सकता। अतएव यदि मैं विपद से भयभीत होता तो तुम्हारे मना करने पर भी कदापि तुम्हारे साथ न लगता। यद्यपि यह बात मुझे न कहनी चाहिए, पर लाचारी से कहना पड़ता है कि मैं बीरता का अभिमान करता हूं और इसलिये मेरे आगे संपद और बिपद दोनों बराबर हैं; अतएव मैने जानबूझकर इस विपद-सागर में अपने को डाला है, इसलिये तुम इसका कुछ सोच न करो।

"सन्दरी, हमीदा, मैंने सुना है कि तुम्हारे पिताने मुझे कल दरवार में हाज़िर करने की आशा अपने सिपाहियों को दी है। बस, कल वह अफ़रीदी सर्दार देखेगा कि एक सिक्खबीर किस दिलेरी के साथ मृत्यु को आलिङ्गन करता है!परन्तु, सर्दारपुत्री! तुम जो इतना कष्ट उठाकर इतनी रातको इस कैदी के साथ अपनी हमदर्दी ज़ाहिर करने आई हो, इसलिये यह तुम्हे सच्च जी से असंख्य धन्यवाद देता है।"

मेरी बातें सुनकर उस सुन्दरी ने एक लंबी सांस बँची और गदराई हुई आवाज़ से इस प्रकार कहा,--

"अजनबी बहादुर! मैंने तुम्हारे साथ ऐसी कोई भी नेकी नही