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श्रीः

 

याक़ूती तख़्ती
वा
यमज-सहोदरा
उपन्यास

पहिला परिच्छेद

तरुण अवस्था के साथही साथ, परम स्वाधीनता और विपुल धन को पाकर मैं चाटुकारों की दुष्टता के कारण कुमार्ग में जाही चुका था कि परमात्मा के परम अनुग्रह से बहुतही बच गया। तो क्यों कर बचा, इस जीवनी में उसी कहानी का उल्लेख करता हूं,—

मेरा नाम जगदीशचन्द्र मित्र है। मेरे पिता मुर्शिदाबाद के बड़ेभारी ज़िमीदार थे, पर अब न तो मेरी माताही हैं और न पिता। मैं अपने पिता का एकमात्र सन्तान हूं और अब पचास हज़ार रुपए की सालाना आमदनी का भोक्ता और हर्त्ता, कर्त्ता, बिधाता हूं।

मेरी अवस्था इस समय सत्ताईस वर्ष की है। जब मेरी माता, तथा मेरे पिता जीवित थे और मेरी अवस्था केवल उन्नीस वर्ष की थी, तथा मैं बी॰ए॰ पास कर चुका था, हुगली के एक मध्यवित्त ज़िमीदार की कन्या से मेरा बिवाह हुआ था; किन्तु वह बिवाह जैसा हुआ, वैसा न हुआ,—दोनों बराबर था। क्योंकि मैंने बासरगृह के बाद फिर अपनी पत्नी की सूरत न देखी! इसका कारण यही था कि बिवाह के