पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/४९

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परिच्छेद]
(४७)
यमज-सहोदरा


भी नहीं करने पाया था कि भगवान भास्कर अस्ताचल पर पहुंच गए और साथही तीन अफरीदी सिपाही आकर मुझे उस जगह पर ले गए, जहांपर मुझ जैसे अभागों की जाने ली जाती थीं।

वह जगह बस्ती से कुछ दूर, पहाड़ की चोटी पर थी और वह इतनी सूनसान और मनहल थी कि वहां पहुंचने पर एक देर मेरा हृदय कांप उठा। परन्तु तुरंत ही मैंने गुरु गोविन्द सिंह का नाम लेकर अपने हृदय को दृढ़ किया और घातकों से कहा कि,- वे अपना काम करें।"

उस समय अस्त होते हुए सूर्य की लाल प्रभा से उस पर्वतस्थली की कैली प्राकृतिक शोभा थी, इसके अनुभव करने का मुझे अक्सर न था, क्योंकि मेरी मृत्यु मेरे बहुत ही समीप पहुंच गई थी। अस्तु, मैंने एक बार घूमकर चारो ओर इसलिये दृष्टि फेरी कि यदि कदाचित हमीदा कहीं पर खड़ी हो तो उसे एक बार देखलूं, परन्तु हा! उस समय वह थी कहां!

निदान फिर तो जल्लादों ने मेरे हाथ पैर और आंखों के बांधने की इच्छा प्रगट की, जिले सुनकर मैंने कहा,-"आह! मरने के पूर्व तो अब तम लोग मुझे बंधन में न डालो और मरते मरते मुझे इन आंखों से इस प्राकृतिक शोभा को देख लेने दो। फिर मरने के बाद न जाने मैं किस लोक में जाऊंगा और वहां पर न जाने किस प्रकार के सुख वा दुःख को पाऊंगा।"

मरने के समय की मेरी इस बात को जल्लादों ने मान लिया और मैं मरने के लिये तैयार हो गया। उस समय एकाएक मेरी दृष्टि सामनेवाली एक पहाड़ी चोटी पर जो गई तो मैंने देखा कि सफ़ेद साड़ी पहने हुए कोई स्वर्गीया सुन्दरी अचल-प्रतिमा की भांति खड़ी है! यद्यपि सूर्यास्त हो जाने के कारण मैं यह स्पष्ट न जान सका कि वह हमीदा ही थी; या कोई और थी, पर मेरे चित्त ने मुझ स्ले बार बार यही कहाकि यह हमीदा ही है। आह! यह जानते ही मैं मारे प्रसन्नता के अपनी मृत्यु को क्षण भर के लिये भूल गया, परन्तु तुरंत ही जल्लादों के संकेत करने से मैं सावधान हो गया, पर मेरी दृष्टि उस अचल-प्रतिमा ( हमीदा ) ही की ओर लगी रही।

अहा, प्रेम! तू धन्य है! सामने मृत्यु, सिरपर घासक, बगल में काल और चारो ओर ले निराश की फांसी, तिलपर भी प्रेम! अतएव