पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/५०

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याक़ूतीतख़्ती


कहते हैं कि प्रेम तू धन्य है! क्षणमात्रही का जीवन अब रहगया है, दीपक बुझने में अब कोई सन्देह नहीं है। आशा एक दम से शून्य में मिल गई है और दुराशा ने भी एक प्रकार से साथ छोड़ दिया है, तथापि प्रेम! तथापि प्रेमका यह महामोहप्रद उत्पात!!!

मेरी दृष्टि उसी अस्पष्टमूर्ति की ओर, जिसे मैने हमीदा समझ रक्खा था, लगगई थी और उसकी ओर निहारते निहारते मुझे आशा और निराशा ने बेतरह झकझोर डाला था। यद्यपि मैं अपने जीवन से सब तरह निराश होहीचुका था, किन्तु उस अस्पष्ट-हमीदा मूर्ति के देखते ही मुझे न जाने, आशा कैसी कैसी आशा देने लगी और न जाने मेरे मनमें कैसी कैसी तरंगें उठने लगीं। उस समय, मुझे यही जान पड़ने लगा कि मानो मैं किसी कल्पनातीत दिव्य राज्य में हमीदा के साथ बिचरण कर रहा हूं, और मुझे चारो ओर से अनेक दिव्यमूर्तियों ने घेर रक्खा है।

जगदीशबाबू! उन जल्लादों में तीसरा व्यक्ति वही कमीना अबदुल था, जो मेरे उपकार का प्रत्युपकार करने आया था। सो उसने मुझे अन्तिम बार सावधान होने के लिये कहा, जिसके उत्तर में मैंने गरज कर कहा कि,-'तू अपना काम कर, मैं सावधान हूं।

निदान, 'गुड़ गुड़ गुडुम्' करके तीनों बंदूकें छूट गई और कंधे में चोट खा, मुर्छित हो कर मैं वहीं गिर गया। फिर मुझे चारों ओर अंधकारही अंधकार दिखलाई देने लगा और यह नहीं जान पड़ा कि फिर क्या हुआ!