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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/५१

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परिच्छेद]
(४९)
यमज-सहोदरा


सातवां परिच्छेद

समय जब मैं होश में आया उस समय रात थी, पर कितनी थी, यह मैंन जानसका। मैने देखा कि घर के कोने में दीवट पर रक्खा हुआ एक दीया बल रहा है और में एक व्याघ्रचर्म पर पड़ा हुआ है। मेरे कंधे में, जहां पर कि मैंने चोट खाई थी, इतनी पीड़ा होरही है कि जिसके कारण करवट बदलना तो दूर रहा, मैं हिलडोल भी नहीं सकता हूं। मेरे सिरहाने सिर झुकाए हुए एक सुन्दरी बैठी है और बड़ी उत्कंठा से वह मेरे चेहरे को देख रही है! किन्तु वह कौन सुन्दरी थी, यह बात हलके उजाले के कारण मैं एकाएक न जान सका।

एक तो मिटमिट करते हुए दीए का उजाला कम था, दूसरे मेरी आंखों में पहिले की सी ज्योति नहीं बच रही थी, इसलिये प्रथम दर्शन में मैंने उस सुन्दरी को नहीं पहिचाना कि यह कौन है! अस्तु, कुछ देर में मैंने अपनी बिलुप्त स्मृति को धीरे धीरे अपने हृदय में लाकर उस सुन्दरी से दो प्रष्ण किए,-"मैं कहां हूं-और तुम कौन हो?"

मेरे प्रष्ण को सुन और मेरे कान के पास अपना मुहं लाकर उस सुन्दरी ने बहुतही धीरे से कहा,-"आप घबरायं नहीं, क्योंकि आप अपने एक सच्चे दोस्त की हिफाज़त में हैं।"

मैंने फिर कहा,-"तो तुम कौन हो!"

इस पर उस सुन्दरी ने कहा, "मैं आपकी लौंडी हमीदा हूं। बस, अब चुपचाप पड़े रहिए, बोलिए मत; क्योंकि ज़ियादह बोलने में तकलीफ़ घटने के वनिस्वत और भी बढ़ जायगी।"

हमीदा का नाम सुनतेही मेरा मन फड़क उठा और में अपने छिन्नभिन्न स्मृतिसूत्र के जोड़ने में उसी प्रकार यत्म करने लगा, जैसे मकड़ी अपने जाले के तार टूटने पर उसके जोड़ने में प्रयत्न करने लगती है। सो कुछ देर में चित्त को संयत करके मैने पहिले के सारे वृत्तान्त को धीरे धीरे समझा और हमीदा से कहा,-"हमीदा! तुम स्वर्गीया देवी हो, मनुष्यलोक की नारी नहीं हो। अतएव में समझाता हूं कि मुझ जैसे पापी के उद्धार करने के लियेही तुम स्वर्ग से उतर कर इस नरक में आई हो!"