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परिच्छेद]
(६३)
यमज-सहोदरा


दसवां परिच्छेद

निदान, उस घाटी में हम दोनों चुपचाप चलने लगे। आगे हमीदा थी, और उसके पीछे मैं था; पर दोनो ही चुपचाप थे। जहां जहां बहुतही बीहड़ और ऊबड़-खाबड़ रास्ता आता, हमीदा का सहारा लेकर में चलने लगता। यद्यपि हम दोनो चाहते थे कि जहांतक होसके, शीध्र इस घाटी से पार हो, पर वह रास्ता इतना बीहड़ था कि उसमें जलदी चलने की इच्छा करना, मानो प्राण ले हाथ धोना था।

यह बात तो मैं कही आया हूं कि हमीदा मुझे जी जान से चाहन लग गई थी और में उसे प्राण ले बढ़ कर प्यार करने लग गया था। पर अब रह रह कर मेरा प्राण व्याकुल होने लगा। क्योंकि यह बात में जानता था कि अक्षरीदी सिवाने से पार होतेही हमीदा मुझस बिदा होगी और मेरे लरस हदय को मरुभूमि बना डालेगी। मुझे छोड़ने पर उसके जीपर कैसी बीतेगी, इसे तो वह जाने, पर इसे छोड़ने पर कदाचित मुझे अपना प्राण छोडना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं।

जगदीशबाबू! जिस समय में पीड़ित अवस्था में हमीदा के गुप्तगृह में पड़ा पड़ा लोचता था कि इस आकस्मिक प्रेम का परिणाम क्या होगा! उस समय में यह नहीं जान सका था कि हमीदा इतनी जल्दी मुझसे दूर होगी! हाय, क्या इतना शीघ्रही हमीदा को छोड़ना पड़ेगा और इसे मैं पाब लेजाकर अपने जीवन की संगिनी न बना सकेगा।

निदान रामराम करके मैं उस घाटी के पार हुआ और सामने चमकते हुए भगवान भास्कर को बहुत दिनों के पश्चात देखकर प्रणाम किया। उस समय एक वृक्ष की छाया में, एक शिलाखंड पर हमीदा ने मुझे बैठाया और मेरे बलग में स्वयं बैठ और बड़े प्यारा से मेरे गले में बाहेडालकर उसने कहा,-"प्यारे, निहालसिंह! तुम अफरीदी सिवाने के करीब पहुंच गए। ( हाथ से एक ओर को दिखाला कर ) बस, इस राहसे एक कोस के करीब चले जाने पर तुम अफरीदी सिवाने से बाहर हो जाओगे। इसलिये अब मैं तुमसे रुखसत होती हूं और मेरे सबब जो कुछ तकलीफ़ तुमने बर्दाश्त की, उसके लिये मांफी चाहती हूं।"

हाय, इतनी जल्दी प्यारी, हमीदा, मुझसे विदा हो कर मेरे हृदय