पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०९
मुमुक्षु प्रकरण।

है तब अमृत की कणा फूटती है और शीतलता होती है वैसे ही जिसके हृदय में शमरूपी चन्द्रमा उदय होता है उसके सब ताप मिट जाते हैं और परम शान्तिमान् होता है। हे रामजी! शम देवता के अमृत समान कोई अमृत नहीं, शम से परम शोभा की प्राप्ति होती है। जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा की कान्ति परम उज्ज्वल होती है वैसे ही शम को पाके जीव की उज्ज्वल कान्ति होती है। जैसे विष्णु के दो हृदय हैं—एक तो अपने शरीर में और दूसरा सन्तों में है वैसे ही जीव के भी दो हृदय होते हैं एक अपने शरीर में और दूसरा शम में। जैसा आनन्द शमवान् को होता है वैसा अमृत पीने से भी नहीं होता। हे रामजी! कोई कोई प्राण से प्रिय अन्तर्धान होकर फिर प्राप्त हो तो जैसा आनन्द होता है उस आनन्द से भी अधिक आनन्द शमवान् को होता है। उसके दर्शन से जैसा आनन्द होता है ऐसा आनन्द राजा, मंत्री और सुन्दर स्त्री को भी नहीं। हे रामजी! जिस पुरुष को शम की प्राप्ति हुई है वह वन्दना करने और पूजने योग्य है। जिसको शम की प्राप्ति हुई है उसको उदेग नहीं होता और अन्य लोगों से उद्धेग नहीं पाता। उसकी क्रिया और वचन अमृत की नाई मीठे और चन्द्रमा की किरण के समान शीतल और सबको हृदयाराम हैं। हे रामजी! जैसे बालक माता को पाके आनन्दित होता है वैसे ही जिसको शम की प्राप्ति हुई है उसके संग से जीव अधिक आनन्दवान होता है। जैसे किसी का वान्धव मुवा हुआ फिर आवे ओर उसको आनन्द प्राप्त हो उससे भी अधिक आनन्द शमसम्पत्र पुरुष को होता है। हे रामजी! ऐसा आनन्द चक्रवर्ती और त्रिलोकी का राज्य पाने से भी नहीं होता। जिसको शम की प्राप्ति हुई है उसके शत्रु भी मित्र हो जाते हैं; उसको सर्प और सिंह का भय नहीं रहता बल्कि किसी का भी भय नहीं रहता, वह सदा निर्भय शान्तरूप रहता है। हे रामजी! जो कोई कष्ट प्राप्त हो और काल की अग्नि भी आ लगे तो भी वह चलायमान नहीं होता—सदा शान्तरूप रहता है। जैसे शीतल चाँदनी चन्द्रमा में स्थिर है वैसे ही जो कुब शुभ गुण भोर संपदा है सब शमवान् के हृदय में आ स्थित