पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२८

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योगवाशिष्ठ।

जगत् भी है। कोई पदार्थ अर्थरूप नहीं। हे रामजी! इस प्रकार स्थिति प्रकरण कहा है। उसके तीन सहस श्लोक हैं; उनके विचारने से जगत् की सत्यता जाती रहती है। उसके अनन्तर उपशम प्रकरण हे उसके पाँच सहस्र श्लोक हैं। जैसे स्वप्न से जागने पर वासना जाती रहती है वैसे ही इसके विचार से अहं त्वमादिक वासना लीन हो जाती है, क्योंकि उसके निश्चय में जगत् नहीं रहता। जैसे एक पुरुष सोया है उसको स्वप्न में जगत् भासता है और उसके निकट जो जाग्रत पुरुष है उसको स्वप्न का जगत् आकाशरूप है तो जब आकाशरूप हुआ तब वासना कैसे रहे और जब वासना नष्ट हुई तब मन का उपशम हो जाता है। तब देखनेमात्र उसकी सब चेष्टा होती है और मन में पदार्थों की इच्छा नहीं होती। जैसे अग्नि की मूर्ति देखनेमात्र होती है, अर्थाकार नहीं होती, वैसे ही उसकी चेष्टा होती है। हे रामजी! जैसे तेल से रहित दीपक निर्वाण हो जाता है वैसे ही इच्छा से रहित मन निर्वाण होता है। उसके अनन्तर निर्वाण प्रकरण है उसमें परम निर्वाण वचन कहे हैं। अज्ञान से चित्त औरचित्त का सम्बन्ध है, विचार करने से निर्वाण हो जाता है। जैसे शरदकाल में मेघ के प्रभाव से शुद्ध आकाश होता है वैसे ही विचार से जीव निर्मल होता है । हे रामजी! अहंकार पिशाच विचार से नए होता है और जितनी कुछ इच्छा फुरती है सो निर्वाण हो जाती है। जैसे पत्थर की शिला फुरने से रहित होती है वैसे ही ज्ञानवान इच्छा से हित होता है तब जिननी कुछ उनकी जगत् की यात्रा है सो हो चुकती है और जो कुछ करना है सो कर चुकता है। हे रामजी! शरीर होते भी वह पुरुष अशरीर हो जाता है। नाना प्रकार का जगत् उसको नहीं भासता; जगत् की नेति से वह रहित होता है और अहंत्वमादिक तमरूप जगत् उसको नहीं भासता जैसे सूर्य को अन्धकार दृष्टि नहीं आता वैसे ही उसको जगत् दृष्टि में नहीं पाता और बड़े पद को प्राप्त होता है जैसे सुमेरु पर्वत के किसी कोने में कमल होता है और उस पर भँवर स्थित रहते हैं वैसे ही ब्रह्म के किसी कोने में जगत तुषाररूप हे और जीवरूपी भँवरे उस पर स्थित हैं। वह पुरुष अचिन्त्य विन्मात्र