पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४

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योगवाशिष्ठ।

सम्बंध क्या है और अधिकारी कौन है सो सुनो। यह शास्त्र सत्-चित् आनन्दरूप अचिन्त्यचिन्मात्र आत्मा को जताता है यह तो विषय है, परमानन्द आत्मा की प्राप्ति और अनात्म अभिमान दुःख की निवृत्ति प्रयोजन है भोर ब्रह्मविद्या और मोक्ष उपाय से आत्मपद प्रतिपादन सम्बन्ध है जिसको यह निश्चय है कि मैं अदैत-ब्रह्म अनात्मदेह से बाँधा हुआ हूँ सो किसी प्रकार कुहूँ वह न अति ज्ञानवान है, न मूर्ख है, ऐसा विकृति आत्मा यहाँ अधिकारी है। यह शास्त्र मोक्ष (परमानन्द की प्राप्ति) करनेवाला है। जो पुरुष इसको विचारेगा वह ज्ञानवान होकर फिर जन्ममृत्युरूप संसार में न भावेगा। हे राजन्! यह महारामायण पावन है। श्रवणमात्र से ही सब पाप का नाशकता है जिसमें रामकथा है। यह मैंने प्रथम अपने शिष्य भारद्वाज को सुनाई थी। एक समय भारद्वाज चित्त को एकाग्र करके मेरे पास आये और मैंने उसको उपदेश किया था। वह उसको सुनकर वचनरूपी समुद्र से साररूपी रत्न निकाल और हृदय में धरकर एक समय सुमेरु पर्वत पर गया। वहाँ ब्रह्माजी बेठे थे, उसने उनको प्रणाम किया और उनके पास बैठकर यह कथा सुनाई। तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उससे कहा, हे पुत्र! कुछ वर मांग; मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ हू । भारद्वाज ने, जिसका उदार आशय था, उनसे कहा, हे भूत-भविष्य के ईश्वर! जो तुम प्रसन्न हुए हो, तो यह वर दो कि सम्पूर्ण जीव संसार-दुःख से मुक्त हों और परमपद पावें और उसी का उपाय भी कहो। ब्रह्माजी ने कहा, हे पुत्र! तुम अपने गुरु वाल्मीकिजी के पास जाओ। उसने आत्मबोध महारामायण शास्त्र का जो परमपावन संसारसमुद्र के तरने का पुल है, आरम्भ किया है। उसको सुनकर जीव महामोहजनक संसारसमुद्र से तरेंगे। निदान परमेष्ठी ब्रह्मा जिनकी सर्वभूनों के हित में प्रीति है आप ही, भारद्वाज को माथ लेकर मेरे आश्रम में आये और मैंने भले प्रकार से उनका पूजन किया। उन्होंने मुझसे कहा, हे मुनियों में श्रेष्ठ वाल्मीकि! यह जो तुमने राम के स्वभाव के कथन का आरम्भ किया है इस उद्यम का त्याग न करना; इसकी आदि से अन्त पर्यन्त समाप्ति करना; क्योंकि यह मोक्ष उपाय संसार