पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४०

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योगवाशिष्ठ।

आदर्श में प्रतिबिम्ब भी तन होता है जब दूसरा निकट होता है, पर आत्मा के निकट दूसरा और कोई प्रतिविम्ब नहीं होता, क्योंकि आभासरूप है। एक ही आत्मसत्ता चैतन्यता से द्वैत की नाई होकर भासती है, पर कुछ बना नहीं। जैसे फल में सुगन्ध होती है, तिलों में तेल होता है और अग्नि में उष्णता होती है और जैसे मनोराज की सृष्टि होती है वैसे ही आत्म् में जगत् है। जैसे मनाराज से मनोराज की सृष्टि भिन्न नहीं होती वैसे ही यह जगत् आत्मा से भिन नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिपकरणे बोधहेतुवर्णनन्नाम प्रथमस्सर्गः॥१॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक आकाशज आख्यान जो श्रवण का भूषण और बोध का कारण है उसको सुनिये। आकाशज नामक एक ब्राह्मण शुद्धचिदंश से उत्पन्न हुए। वह धर्मनिष्ठ सदा आत्मा में स्थिर रहते थे, भले प्रकार प्रजा का पालन करते थे और चिरञ्जीवी थे। तब मृत्यु विचार करने लगी कि मैं अविनाशिनी हूँ और जो जीव उपजते हैं उनको मारती हूँ परन्तु इस ब्राह्मण को मैं नहीं मार सकती। जैसे खड़ की धार पत्थर पर चलाने से कुण्ठित हो जाती है वैसे ही मेरी शक्ति इस ब्राह्मण पर कुण्ठित हो गई है। हे रामजी! ऐसा विचारकर मृत्यु बाह्मण को भोजन करने के निमित्त उठी और जैसे श्रेष्ठ पुरुष अपने आचार कर्म को नहीं त्याग करते वैसे ही मृत्यु भी अपने कर्मों को विचार कर चली। जब ब्राह्मण के गृह में मृत्यु ने प्रवेश किया तो जैसे प्रलयकाल में महातेज संयुक्त अग्नि सब पदार्थों को जलाने लगती है वैसे ही अग्नि इसके जलाने को उड़ी और आगे दौड़ के जहाँ ब्राह्मण बैठा था अन्तःपुर में जाकर पकड़ने लगी। पर जैसे बड़ा बलवान पुरुष भी और के संकल्परूप पुरुष को नहीं पकड़ सकता वैसे ही मृत्यु ब्राह्मण को न पकड़ सकी। तब उसने धर्मराज के गृह में जाकर कहा, हे भगवन्! जो कोई उपजा है उसको मैं अवश्य भोजन करती हूँ, परन्तु एक ब्राह्मण जो भाकाश से उपजा है उसको मैं वश में नहीं कर सकी। यह क्या कारण है? यम बोले, हे मृत्यो! तुम किसी को नहीं मार सकतीं, जो कोई मरता है वह अपने कर्मों से मरता है। जो कोई कमों का कर्ता है उसके