पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४७

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उत्पत्ति प्रकरण।

मन का रूप है। जहाँ जहाँ संकल्प फुरता है वहाँ वहाँ मन है जैसे जहाँ जहाँ तरङ्ग फुरते हैं वहाँ वहाँ जल है वैसे ही जहाँ जहाँ संकल्प फुरता है वहाँ वहाँ मन है। मन के और भी नाम हैं—स्मृति, अविद्या, मलीनता और तम ये सब इसी के नाम ज्ञानवान् पुरुष जानते हैं। हे रामजी! जितना जगज्वाल भासता है सो सब मन से उत्पन्न हुआ है और सब दृश्य मनरूप हैं, क्योंकि मन का रचा हुआ है वास्तव में कुछ नहीं है। हे रामजी! मनरूपी देह का नाम अन्तवाहक शरीर है वह संकल्परूप सब जीवों का आदि वपु है। उस संकल्प में जो दृढ़ आभास हुआ है उससे आधिभौतिक भासने लगा है और आदि स्वरूप का प्रमाद हुआ है। हे रामजी! यह जगत् सब संकल्परूप है और स्वरूप के प्रमाद से पिण्डाकार भासता है। जैसे स्वप्नदेह का आकार आकाशरूप है उसमें पृथ्वी आदि तत्त्वों का अभाव होता है परन्तु अज्ञान से आधिभौतिकता भासती है सो मन ही का संसरना है वैसे ही यह जगत् है, मन के फुरने से भासता है। हे रामजी! जहाँ मन है वहाँ दृश्य है और जहाँ दृश्य है वहाँ मन है। जब मन नष्ट हो तब दृश्य भी नष्ट हो। शुद्ध बोधमात्र में जो दृश्य भासता है सोई मन है। जब तक दृश्य भासता है तब तक मुक्त न होगा, जब दृश्यभ्रम नष्ट होगा तब शुद्ध बोध प्राप्त होगा। हे रामजी! "दृष्टा, दर्शन, दृश्य" यह त्रिपुटीमन से भासती है। जैसे स्वप्न में त्रिपुटी भासती है और जब जाग उठा तब त्रिपुटी का प्रभाव हो जाता है और आप ही भासता है वैसे ही आत्मसत्ता में जागे हुए को अपना आप अद्वैत ही भासता है। जब तक शुद्धबोध नहीं प्राप्त हुआ तब तक दृश्यभ्रम निवृत्त नहीं होता। वह बाह्य देखता है तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, अन्तर देखेगा तो भी सृष्टिही दृष्टि आती है और उसको सत्य जानकर राग-द्वेष कल्पना उठती है। जब मन आत्मपद को प्राप्त होता है तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जाता है। जैसे जब वायु की स्पन्दता मिटती है तब वृक्ष के पत्रों का हिलना भी मिट जाता है। इससे मनरूपी दृश्य ही बन्धन का कारण है। रामजी बोले, हे भगवन्! यह दृश्यरूपी विसूचिकारोग है, उसकी निवृत्ति कैसे हो सो कृपा करके कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! संसाररूपी वैताल