पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५१

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उत्पत्ति प्रकरण।

है और सबको सत्ता देनेवाला है। हे रामजी! वृक्ष आत्मसत्ता से उपजता है, आकाश में शून्यता उसी की है और अग्नि में उष्णता, जल में द्रवता और पवन में स्पर्श उसी की है। निदान सब पदाथों की सत्ता वही है। मोरों के पङ्खो में रङ्ग आत्मसत्ता से ही हुआ है; पत्थर में मूंगा और पत्थरों में जड़ता उसी की है। और स्थावर-जंगम जगत् का अविष्ठानरूप वही ब्रह्म है। हे रामजी! आत्मरूपी चन्दमा की किरणों से ब्रह्माण्डरूपी त्रसरेणु उत्पन्न होती हैं। वह चन्द्रमा शीतलता और अमृत से पूर्ण है। ब्रह्मरूपी मेघ है उससे जीवरूपी बूँदें टपकती हैं। जैसे विजली का प्रकाश होता है और छिप जाता है वैसे ही जगत् प्रकट होता है और लिप जाता है। सबका अधिष्ठान आत्मसत्ता और वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और परमानन्द है। सब सत्य असत्यरूप पदार्थ उसी आत्मसत्ता से होते हैं। हे रामजी! उस देव की सत्ता से जड़पुर्यष्टक चैतन्य होकर चेष्टा करती है। जैसे चुम्बक पत्थर की सत्ता से लोहा चेष्टा करता है वैसे ही चैतन्यरूपी चुम्बक मणि से देह चेष्टा करती है। वह आत्मा नित्य चैतन्य और सबका कर्ता है, उसका कर्ता और कोई नहीं। वह सबसे अभेदरूप समानसत्ता है और उदय अस्त से रहित है। हे रामजी! जो पुरुष उस देव का साक्षात् करता है उसकी सब क्रिया नष्ट हो जाती हैं और चिद्जड़ ग्रन्थि विद जाती है और केवल बोधरूप होते हैं। जब स्वभावसत्ता में मन स्थित होता है तब मृत्यु को सम्मुख देखकर भी विहल नहीं होता। इतना कहकर फिर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह देव किसी स्थान में नहीं रहता और कहीं दूर भी नहीं है, वह तो अपने आप ही में स्थित है। हे रामजी! घटघट में वह देव है पर अज्ञानी को दूरभासता है। स्नान, दान, तप आदि से वह प्राप्त नहीं होता केवल ज्ञान से ही प्राप्त होता है—कर्त्तव्य से प्राप्त नहीं होता। जैसे मृगतृष्णा की नदी भासती है वह कर्तव्यता निवृत्त नहीं होती, केवल ज्ञातव्य से ही निवृत्त होती है वैसे ही जगत् की निवृत्ति आत्मज्ञान से ही होती है। हे रामजी। कर्तव्य भी यही है जो ज्ञातव्यरूप है—अर्थात् यह कि जिससे ज्ञातव्यस्वरूप की प्राप्ति होती है। रामजी बोले, हे भगवन्। जिस