पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५४

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योगवाशिष्ठ।

है और अजड़ है पर जड़ के समान स्थित है वह परमात्मा का रूप हे और जो सबके भीतर बाहर स्थित है और सबको प्रकाशता हे सो परमात्मा का रूप है। हे रामजी! जैसे सूर्य प्रकाशरूप और आकाश शून्यरूप है वैसे ही यह जगत् आत्मरूप है। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो सब परमात्मा ही है तो क्यों नहीं भासता और जो सब जगत् भासता है इसका निर्वाण कैसे हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जगत् भ्रम से उत्पन्न हुआ है—वास्तव में कुछ नहीं है। जैसे आकाश में नीलता भासती है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। जब जगत् का अत्यन्त अभाव जानोगे तब परमात्मा का साक्षात्कार होगा और किसी उपाय से न होगा। जब दृश्य का अत्यन्त प्रभाव करोगे तब दृश्य उसी प्रकार स्थित रहेगा, पर तुमको परमार्थ सत्ता ही भासेगी। रामजी! वित्तरूपी आदर्श दृश्य के प्रतिबिम्ब बिना कदाचित् नहीं रहता। जब तक दृश्य का अत्यन्त प्रभाव नहीं होता तब तक परम बोध का साक्षात्कार नहीं होता। इतना सुनकर रामजी ने फिर पूछा कि हे भगवन! यह दृश्यजाल आडम्बर मन में कैसे स्थित हुआ है? जैसे सरसों के दानों में सुमेरु का आना आश्चर्य है वैसे ही जगत् का मन में आना भी आश्चर्य है। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक दिन तुम वेदधर्म की प्रवृत्ति सहित सकाम यज्ञ योगादिक त्रिगुण से रहित होकर स्थित हो और सत्संग और सत्शास्त्रपरायण हो तब मैं एक ही क्षण में दृश्यरूपी मैल दूर करूँगा। जैसे सूर्य की किरणों के जाने से जल का प्रभाव हो जाता है वैसे ही तुम्हारे भ्रम का प्रभाव हो जावेगा। जब दृश्य का प्रभाव हुभा तब द्रष्टा भी शान्त होवेगा और दोनों का प्रभाव हुधा तब पीछे शुद्ध प्रात्मसत्ता ही भासेगी। हे रामजी! जब तक द्रष्टा है तब तक दृश्य है और जब तक दृश्य है तब तक द्रष्टा है। जैसे एक की अपेक्षा से दो होते हैं—दो हैं तो एक है और एक है तब दो भी हैं—एक न हो तब दो कहाँ से हो—वैसे ही एक के प्रभाव से दोनों का प्रभाव होता है। द्रष्टा की अपेक्षा से ही दृश्य भौर दृश्य की अपेक्षा करके दृष्टा है। एक के अभाव से दोनों का प्रभाव हो जाता है। हे रामजी! अहंता