पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१५५

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उत्पत्ति प्रकरण।

से आदि लेकर जो दृश्य है सो सब दूर करूँगा। हे रामजी! अनात्म से आदि लेके जो दृश्य है वही मैल है इससे रहित होकर चित्तरूप दर्पण निर्मल होगा। जो पदार्थ असत् है उसका कदाचित् भाव नहीं होता और जो पदार्थ सत् हे सो असत् नहीं होगा। जो वास्तव में सत् न हो उसका मार्जन करना क्या कठिन है; हे रामजी! यह जगत् आदि से उत्पन्न नहीं हुआ। जो कुछ दृश्य भासता है वह भ्रान्तिमात्र है। जगत् निर्मल ब्रह्म चैतन्य ही है। जैसे सुवर्ण से भूषण होता है तो वह सुवर्ण भूषण से भिन्न नहीं वैसे ही जगत और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं। हे रामजी! दृश्यरूपी मल के मार्जन के लिये मैं बहुत प्रकार की युक्ति तुमसे विस्तारपूर्वक कहूँगा उससे तुमको अद्वैत सत्ता का भान होगा। यह जगत् जो तुमको भासता है वह किसी के द्वारा नहीं उपजा। जैसे मरुस्थल की नदी भासती है और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही यह जगत् बिना कारण भासता है। जैसे मरुस्थल में जल नहीं जैसे बन्ध्या का पुत्र नहीं और जैसे आकाश में वृक्ष नहीं वैसे ही यह जगत् है। जो कुछ देखते हो वह निरामय ब्रह्म है। यह वाक्य तुमको केवल वाणीमात्र नहीं कहे हैं किन्तु युक्तिपूर्वक कहे हैं हे रामजी! गुरु की कही युक्ति को जो मूर्खता से त्याग करते हैं उनको सिद्धान्त नहीं प्राप्त होता।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे दृश्यअसत्य
प्रतिपादनन्नाम षष्ठस्सर्गः॥६॥

इतना सुन रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! वह युक्ति कौन है और कैसे प्राप्त होती है जिसके धारण करने से पुरुष आत्मपद को प्राप्त होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मिथ्या ज्ञान से जो विसूचिकारूपी जगत् बहुत काल का दृढ़ हो रहा है वह विचाररूपी मन्त्र से शान्त होता है। हे रामजी! बोध की सिद्धता के लिए मैं तुमसे एक आख्यान कहता हूँ उसको सुनके तुम मुक्तात्मा होगे और जो अर्द्धप्रबुद्ध होकर तुम उठ जाओगे तब तिर्यगादिक योनि को प्राप्त होगे। हे रामजी! जिस अर्थ के पाने की जीव इच्छा करता है उसके पाने के अनुसार यत्न भी