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योगवाशिष्ठ।

करे और थककर फिरे नहीं तो अवश्य उसको पाता है, इससे सत्संगति और सत शास्त्रपरायण हो जब तुम इनके अर्थ में दृढ़ अभ्यास करोगे तब कुछ दिनों में परमपद पावोगे। फिर रामजी ने पूछा हे भगवन्! आत्मबोध का कारण कौन शास्त्र है और शास्त्रों में श्रेष्ठ कौन है कि उसके जानने से शोक न रहे? वशिष्ठजी बोले, हे महामते, रामजी! महाबोध का कारण शास्त्रों में परमशास्त्र में यह महारामायण है। इसमें बड़े-बड़े इतिहास हैं जिनसे परमबोध की प्राप्ति होती है। हे रामजी! सब इतिहासों का सार मैं तुमसे कहता हूँ जिसको समझ कर जीवन्मुक्त हो तुमको जगत् न भासेगा, जैसे स्वप्न में जागे हुए को स्वप्न के पदार्थ भासते हैं। जो कुछ सिद्धान्त है उन सबका सिद्धान्त इसमें है और जो इसमें नहीं वह और में भी नहीं है इसको बुद्धिमान सब शास्त्र विज्ञान भण्डार जानते हैं। हे रामजी! जो पुरुष श्रद्धासंयुक्त इसको सुने और नित्य सुनके विचारेगा उसकी बुद्धि, उदार होकर परमबोध को प्राप्त होगी इसमें संशय नहीं। जिसको इस शास्त्र में रुचि नहीं है वह पापात्मा है। उसको चाहिये कि प्रथम और शास्त्रों को विचारे उसके अनन्तर इसको विचारे तो जीवन्मुक्त होगा। जैसे उत्तम औषध से रोग शीघ्र ही निवृत्त होता है वैसे ही इस शास्त्र के सुनने और विचारने से शीघ्र ही अज्ञान नष्ट होकर आत्मपद प्राप्त होगा। हे रामजी! आत्मपद की प्राप्ति वर और शाप से नहीं होती जब विचाररूप अभ्यास करे तो आत्मज्ञान प्राप्त होता है। हे रामजी! दान देने, तपस्या करने और वेद के पढ़ने से भी आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती, केवल आत्मविचार से ही होती है। संसारभ्रम भी अन्यथा नष्ट नहीं होता।

इति श्री योगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सच्चास्त्रनिर्णयोनाम सप्तमस्सर्गः॥७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिस पुरुष के चित्त और प्राणों की चेष्टा और परस्पर बोधन आत्मा का है और जो आत्मा को कहता भी है; आत्मा से तोषवान् भी है और आत्मा ही में रमता भी है ऐसा ज्ञाननिष्ठ जीवन्मुक्त होकर फिर विदेहमुक्त होता है। रामजी बोले हे मुनीश्वर! जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त का क्या लक्षण है कि उस दृष्टि को