पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६

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योगवाशिष्ठ।

निवृत्त हो जाता है। जैसे आकाश में नीलता भासती है सो भ्रम से वैसे ही है यदि विचार करके देखिए तो नीलता की प्रतीति दूरहो जाती है वैसे ही अविचार से जगत् भासता है और विचार से लीन हो जाता है। हे शिष्य! जब तक सृष्टि का अत्यन्त अभाव नहीं होता तब तक परमपद की प्राप्ति नहीं होती। जब दृश्य का अत्यन्त प्रभाव हो जावे तब शुद्ध चिदाकाश आत्मसत्ता भासेगी। कोई इस दृश्य का महाप्रलय में अभाव कहते हैं परन्तु मैं तुमको तीनों कालों का अभाव कहता हूँ। जब इस शास्त्र को श्रद्धासंयुक्त आदि से अन्त तक सुनकर धारण करे तब भ्रान्ति निवृत्ति हो जावे और अव्याकृत पद की प्राप्ति हो। हे शिष्य! संसार भ्रममात्र सिद्ध है। इसको भ्रममात्र जानकर विस्मरण करना यही मुक्ति है। जीव के बन्धन का कारण वासना है और वासना से ही भटकता फिरता है। जब वासना का क्षय हो जाय तब परमपद की प्राप्ति हो! वासना का एक पुतला है उसका नाम मन है। जैसे जल सरदी की दृढ़ जड़ता पाकर वरफ हो जाता है और फिर सूर्य के ताप से पिघलकर जल होता है तो केवल शुद्ध जल ही रहता है वैसे ही आत्मारूपी जल है, उसमें संसार की सत्यतारूपी जड़ता शीतलता है और उससे मन रूपी बरफ का पुतला हुआ है। जब बानरूपी सूर्य उदय होगा तव संसार की सत्यतारूपी जड़ता और शीतलता निवृत्त हो जावेगी। जब संसार की सत्यता और वासना निवृत्त हुई तन मन नष्ट हो जावेगा और जब मन नष्ट हुआ तो परम कल्याण हुआ। इससे इसके बन्धन का कारण वासना ही है और वासना के क्षय होने से मुक्ति है। वह वासना दो प्रकार की है—एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध। अशुद्धवासना से अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से अनात्मा जो देहादिक हैं उनमें अहंकार करता है और जब अनात्म में आत्म अभिमान हुआ, तब नाना प्रकार की वासना उपजती हैं जिससे घटीयंत्र की नाई भ्रमता रहता है। हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासना से ही खड़ा है। जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुंथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं