पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६१

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उत्पत्ति प्रकरण।

होते हैं और कङ्कण से आदि लेके जो भूषण हैं सो सुवर्ण से इतर नहीं होते—सुवर्णरूप ही हैं वैसे ही जगत् आत्मस्वरूप है और शुद्ध आकाश से भी निर्मल बोधमात्र है। हे रामजी! जब तुम उसमें स्थित होगे तब जगत्भ्रम मिट जावेगा। जगत् वास्तव में कुछ नहीं है सदा ज्यों का त्यों अपने आपमें स्थित है; केवल मन के फुरने से ही जगत् भासता हे मन के फुरने से रहित होने पर सब कल्पना मिट जाती है और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों भासती है। वह सत्ता ज्यों की त्यों ही है और सबका अधिष्ठानरूप है। यह सब जगत् उसी से हुआ है और वही रूप है। सबका कारण आत्मसत्ता है भोर उसका कारण कोई नहीं। अकारण, अद्वैत, अजर, अमर सब कल्पना से रहित शुद्ध चिन्मात्ररूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिमकरणे परमकारण वर्णनन्नामाष्टमस्सर्गः॥८॥

इतना सुनकर रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जब महाप्रलय होता है और सब पदार्थ नष्ट हो जाते हैं उसके पीछे जो रहता है उसे शून्य कहिये वा प्रकाश कहिये, क्योंकि तम तो है नहीं; चेतन है अथवा जीव है, मन है वा बुद्धि है सत्, असत्, किञ्चन, अकिम्चन, इनमें कोई तो होवेगा; आप कैसे कहते हैं कि वाणी की गम नहीं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह तुमने बड़ा प्रश्न किया है। इस भ्रम को मैं बिना यत्न नाश करूँगा। जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही तुम्हारे संशय का नाश होगा। हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब सम्पूर्ण दृश्य का प्रभाव हो जाता है पीछे जो शेष रहता है सो शून्य नहीं, क्योंकि दृश्याभास उसमें सदा रहता है और वास्तव में कुछ हुआ नहीं। जैसे थम्भ में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है कि इतनी पुतलियाँ इस थम्भ से निकलेंगी सो उस थम्भ में ही शिल्पी कल्पता है जो थम्भ न हो तो शिल्पी पुतीलयाँ किसमें कल्पता? वैसे ही आत्मरूपी थम्भे में मनरूपी शिल्पी जगतरूपी पुतलियाँ कल्पता है; जो आत्मा न हो तो पुतलियाँ किसमें कल्पे जैसे थम्भे में पुतलियाँ थम्भारूप हैं वैसे ही सब जगत् ब्रह्मरूप है—ब्रह्मा से इतर जगत् का होना नहीं। जैसी पुतलियों का सद्भाव और असद्भाव थम्भ