पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१६३

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उत्पत्ति प्रकरण।

जो मानसिक है तो आकाशरूप है। इससे जगत् कुछ भिन्न नहीं है रूपअवलोकन मनस्कार जो कुछ भासता है वह सब आकाशरूप है। आत्मसत्ता ही चित्त के फुरने से जगतरूप हो भासती है—जगत् कुछ दूसरी वस्तु नहीं। जैसे सूर्य की किरणों में जलाभास होता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। हे रामजी! थम्भे में जो शिल्पकार पुतलियाँ कल्पता है सो भी नहीं होती और यहाँ कल्पनेवाला भी बीच की पुतली है वह भी होने बिना भासती है। हे रामजी! जिससे यह जगत् भासता है उसको शून्य कैसे कहिये और जो कहिये कि चेतन है तो भी नहीं, क्योंकि चेतन भी तब होता है जब चित्तकला फुरती है जहाँ फुरना न हो वहाँ चेतनता कैसे रहे? जैसे जब कोई मिरच को खाता है तब उसकी तिखाई भासती है, खाये बिना नहीं भासती। वैसे ही चैतन्य जानना भी स्पन्दकला में होता है, आत्मा में जानना भी नहीं होता। चैतन्यता से रहित चिन्मात्र अक्षय सुषुप्तिरूप है उसको जो तुरीय कहता है वह ज्ञेय ज्ञानवान् से गम्य है। हे रामजी! जो पुरुष उसमें स्थित हुआ है उसको संसाररूपी सर्प नहीं डस सकता, वह अवैत्य चिन्मात्र होता है और जिसको आत्मा में स्थिति नहीं होती उसको दृश्यरूपी सर्प डसता है। आत्मसत्ता में तो कुछ द्वैत नहीं हुआ आत्मसत्ता तो आकाश से भी स्वच्छ है। इनका द्रष्टा, दर्शन, दृश्य स्वतः अनुभवसत्ता आत्मा का रूप है और वह अभ्यास करने से प्राप्त होती है। हे रामजी! उसमें द्वैतकल्पना कुछ नहीं है। वह अद्वैतमात्र है वह न इष्टा है न जीव है, न कोई विकार और न स्थूल, न सूक्ष्म है—एक शुद्ध अद्वैतरूप अपने आपमें स्थित है जो यह चैत्य का फुरना ही आदि में नहीं हुआ तो चेतन कला रूप जीव कैसे हो और जो जीव ही नहीं तो बुद्धि कैसे हो जो बुद्धि ही नहीं तो मन और इन्द्रियाँ कैसे हों; जो इन्द्रियाँ नहीं तो देह कैसे हो और जो देह न हो तो जगत् कैसे हो? हे रामजी! आत्मसत्ता में सब कल्पना मिट जाती हैं, उसमें कुछ कहना नहीं बनता वह तो पूर्ण, अपूर्ण, सत्, असत् से न्यारा है भाव और प्रभाव का कभी उसमें कोई विकार नहीं; आदि, मध्य, अन्त की कल्पना