पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७०

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योगवाशिष्ठ‌।

की तब चक्षु इन्द्रिय प्रकट हुई; जब स्पर्श की इच्छा की तो त्वचा इन्द्रिय प्रकट हुई और जब रस लेने की इच्छा की तो जिह्वा इन्द्रिय प्रकट हुई। इसी प्रकार से देह इन्द्रियाँ चैत्यता से भासीं और उनमें यह जीव अहंग्रतीति करने लगा। हे रामजी! जैसे दर्पण में पर्वत का प्रतिविम्ब होता है वह पर्वत से बाह्य है वैसे ही देह और इन्द्रियाँ बाह्य दृश्य हैं पर अपने में भासी हैं इससे उनमें अहं प्रतीति होती है। जैसे कूप में मनुष्य आपको देखे वैसे ही देह में आपको देखता है जैसे डब्बे में। रत्न होता है वैसे ही देह में आपको देखता है। वही चिद्अणु देह के साथ मिलकर दृश्य को रचता है। उस अहं से ही क्रिया भासने लगी। जैसे स्वप्न में दौड़े और जैसे स्थित में स्पन्द होती है वैसे ही आत्मा में जो स्पन्द क्रिया हुई वह चित्त-संविद से ही हुई है और उसी का नाम स्वयम्भू ब्रह्मा हुआ। जैसे संकल्प से दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही मनोमय जगत् भासता है। जैसे शश के शृङ्ग होते हैं वैसे ही यह जगत् है। कुछ उपजा नहीं केवल चित्त के स्पन्द में जगत् फुरता है। जैसेजैसे चित्त फुरता गया वैसे वैसे देश, काल, द्रव्य, स्थावर,जङ्गम, जगत् की मर्यादा हुई। इससे सब जगत् सङ्कल्परूप है, सङ्कल्प से इतर जगत् का आकार कुछ नहीं। जब सङ्कल्प फुरता है तब आगे जगत् दृश्य भासता है और संकल्प निस्स्पन्द होता है तब दृश्य का अभाव होता है। हे रामजी! इस प्रकार से यह ब्रह्मा निर्वाण हो फिर और उपजते हैं इससे सब संकल्पमात्र ही है। जैसे नटवा नाना प्रकार के पट के स्वांग करके बाहर निकल पाता है वैसे ही देखो यह सब मायामात्र है। हे रामजी! जब चित्त की ओर संसरता है तब दृश्य का अन्त नहीं पाता और जब अन्तर्मुख होता है तब सब जगत् आत्मरूप होता है। चित्त के निस्स्पन्द होने से एक क्षण में जगत् निवृत्त होता है क्योंकि सङ्कल्परूप ही है। इससे यह जगत् आकाशरूप हे उपजा कुछ नहीं और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है। जैसे स्वप्न में पर्वत और नदियाँ भ्रम से दीखते हैं वैसे ही यह जगत् भी भ्रम से भासता है। जैसे स्वप्न में आपको मुआ देखता है सो भ्रममात्र हे वेसे ही यह जगत्