पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८०

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योगवाशिष्ठ।

हो गई और व्याकुल होके प्राण त्यागने लगी। तब सरस्वतीजी ने दया करके आकाशवाणी की कि हे सुन्दरि! तेरा भर्त्त जो मृतक हुआ है इसको तू सब ओर से फूलों से ढाँप कर रख, तुझको फिर भर्ती की प्राप्ति होवेगी और यह फूल न कुम्हिलावेंगे। तेरे भर्त्ता की ऐसी अवस्था है जैसे आकाश की निर्मल कान्ति है और वह तेरे ही मन्दिर में है कहीं गया नहीं। हे रामजी! इस प्रकार कृपा करके जब देवी ने वचन कहे तो जैसे जल बिना मछली तड़पती हुई मेघ की वर्षा से कुछ शान्तिमान् होती है वैसे ही लीला कुछ शान्तिमान हुई। फिर जैसे धन हो और कृपणता से धन का सुख न होवे वैसे ही वचनों से उसे कुछ शान्ति हुई और भर्ती के दर्शन बिना जब पूर्ण शान्ति न हुई तब उसने ऊपर नीचे फूलों से भर्ती को ढाँपा और उसके पास आप शोकमान होकर बैठी रुदन करने लगी। फिर देवी की आराधना की तो अर्द्धरात्रि के समय देवीजी था प्राप्त हुई और कहा, हे सुन्दरि! तैंने मेरा स्मरण किस निमित्त किया है और तू शोक किस कारण करती है। यह तो सब जगत् भ्रान्तिमात्र है। जैसे मृगतृष्णा की नदी होती है वैसे ही यह जगत् है। अहं त्वं इदं से ले आदिक जो जगत् भासता है सो सब कल्पनामात्र है और भ्रम करके भासता है। आत्मा में हुआ कुछ नहीं तुम किसका शोक करती हो। लीला बोली हे परमेश्वरि! मेग भर्ती कहाँ स्थित है और उसने क्या रूप धारण किया है? उसको मुझे मिलाया, उसके बिना मैं अपना जीना नहीं देख सकती। देवी बोली हे लीले! आकाश तीन हैं—एक भूताकाश, दूसरा चित्ताकाश और तीमरा चिदाकाश। भूताकाश चित्ताकाश के आश्रय है और चित्ताकाश चिदाकाश के आश्रय है तेरा भा भव भूताकाश को त्यागकर चित्ताकाश को गया है। चित्ताकाश चिदाकाश के आश्रय स्थित है इससे जब तू चिदाकाश में स्थित होगी तब सब ब्रह्मांड तुझको भासेगा। सब उसी में प्रतिबिम्बित होते हैं वहाँ तुझको भर्ती का और जगत् का दर्शन होगा। हे लीले! देश से क्षण में संवित् देशान्तर को जाता है उसके मध्य जो अनुभव आकाश है वह चिदाकाश है। जब तू संकल्प को त्याग दे