पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८२

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योगवाशिष्ठ।

कारे ने आ कहा कि हे राजन्! उत्तरदिशा में और राजा का क्षोभ हुआ है और तुम्हारे मण्डलेश्वर युद्ध करते हैं। इसी प्रकार दक्षिण दिशा की ओर से भी हरकारा आया और उसने भी कहा कि और राजा का शोभ हुआ है और पश्चिम दिशा से हरकारा आया उसने कहा कि पश्चिम दिशा में भी क्षोभ हुआ है। एक और हरकारा आया उसने कहा कि सुमेरु पर्वत पर जो देवतों और सिद्धों के रहने के स्थान हैं वहाँ क्षोभ हुआ है और प्रस्ताचल पर्वत क्षोभ हुआ है। तब जैसे बड़े मेघ भावें वैसे ही राजा की आज्ञा से बहुत सी सेना भाई। रानी ने बहुत से मन्त्री, नन्द आदिक टहलुये, ऋषीश्वर और मुनीश्वर वहाँ देखे। जितने भृत्य थे वे सब सुन्दर और वर्षा से रहित श्वेत बादरों की नाई श्वेत वन पहिने देखे और बड़े वेदपाठी ब्राह्मण देखे जिनके शब्द से नगारे के शब्द भी सूक्ष्म भासते थे! हे रामजी! इस प्रकार ऋषीश्वर, मन्त्री, टहलुये और बालक उसमें देखे, सो पूर्व और भव दोनों देखती भई और आश्चर्यवान हो चित्त में यह शङ्का उपजी कि मेरा भर्ता ही हुआ है वा सम्पूर्ण नगर मृतक हुआ है जो ये सब परलोक में आये हैं। तब क्या देखा कि मध्याह्न का सूर्य शीश पर उदित है और राजा सुन्दर षोडश वर्ष का प्रथम की जरावस्था को त्याग कर नूतन शरीर को धारे बैठा है। ऐसे आश्चर्य को देख के रानी फिर अपने गृह में आई। उस समय आधीरात्रि का समय था अपनी सहेलियों को सोई हुई देख जगाया और कहा जिस सिंहासन पर मेरा भर्ता बैठता था उसको साफ करो मैं उसके ऊपर बैठेंगी और जिस प्रकार उसके निकट मन्त्री और भृत्य आन बैठते थे उसी प्रकार भावें। इतना सुनकर सहेलियों ने जा बड़े मन्त्री से कहा और मन्त्री ने सबको जगाया और सिंहासन झड़वाकर मेघ की नाइ जल की वर्षा की। सिंहासन पर और उसके आसपास वन विछाये और मशालें जलाकर बड़ाप्रकाश किया। जैसे अगस्त्यमुनि ने समुद्र को पार किया था वेसे ही अन्धकार को प्रकाश ने जब पान कर लिया तब मन्त्री, टहलुये, पण्डित, ऋषीश्वर ज्ञानवान् जितने कुछ राजा के पास आते थे वे सब सिंहासन के निकट बैठे और इतने लोग