पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८५

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उत्पत्ति प्रकरण।

ज्ञान न था। उसकी स्त्री का नाम अरुन्धती था। वह पतिव्रता और चन्द्रमा के समान सुन्दरी थी और उसी अरुन्धती के समान विद्या, कर्म, कान्ति, धन, चेष्टा और पराक्रम उसका भी था और चैतन्यता अर्थात् ज्ञान और सब लक्षण एक समान थे। वह आकाश की अरुन्धती थी और यह भूमि की अरुन्धती थी! एक काल में वशिष्ठ ब्राह्मण पर्वत के शिखर पर बैठा था। वह स्थान सुन्दर हरे तृणों से शोभायमान था। एक दिन एक अति सुन्दर राजा नाना प्रकार के भूषणों से भूषित परिवार सहित उस पर्वत के निकट शिकार खेलने के निमित्त चला जाता था। उसके शीश पर दिव्य चमर होता ऐसा शोभा देता था मानो चन्द्रमा की किरणें प्रसर रही हैं और शिर पर अनेक प्रकार के छत्रों की छाया मानों रूपे का आकाश विदित होता था। रत्नमीण के भूषण पहिरे हुए मण्डलेश्वर उसके साथ थे और हस्ती, घोड़े, रथ और पैदल चारों प्रकार की सेना जो आगे चली जाती थी उनकी धूलि बादल होकर स्थित हुई निदान नौवत नगारे बजते हुए राजा की सवारी जाती देख के वशिष्ठ ब्राह्मण मन में चिन्तवन करने लगा कि राजा को बड़ा सुख प्राप्त होता है, क्योंकि सब सौभाग्य से राजा सम्पन्न होता है। इस प्रकार राज्य मुझको भी प्राप्त हो। तब तो वह यह इच्छा करने लगा कि मैं कब दिशाओं को जीतूँगा और मेरे यश से कव दशों दिशा पूर्ण होंगी ऐसे छत्र मेरे शिर पर कब डरेंगे और चारों प्रकार की सेना मेरे आगे कब चलेगी। सुन्दर मन्दिरों में सुन्दरी स्त्रियों के साथ मैं कब विलास करूँगा और मन्द मन्द शीतल पवन सुगन्धता के साथ कव स्पर्श होगा। हे लीले! जब इस प्रकार ब्राह्मण ने संकल्प को धारण किया और जो अपने स्वकर्म थे सो भी करता रहा कि इतने ही में उसको जरावस्था प्राप्त हुई। जैसे कमल के ऊपर बरफ पड़ता है तो कुम्हिला जाता है वैसे ही ब्राह्मण का शरीर कुम्हिला गया और मृत्यु का समय निकट आया। जब उसकी भी भर्ती की मृत्यु निकट देखके कष्टवान हुई तो उसने मेरी आराधना, जैसे तूने की है, की और भर्ता की अजर अमरता को दुर्लभ जानके मुझसे वर माँगा कि हे देवि! मुझको यह बर दे कि