पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८७

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उत्पत्ति प्रकरण।

का जीव अपने गृह में ही रहा; वहाँ हम तुम बैठे हैं और देश देशान्तर, पर्वत, समुद्र, लोक और लोकपालक सब जगत् उसी ही गृह में है तो वह उसमें समाते कैसे हैं? ये वचन तुम्हारे ऐसे हैं जैसे कोई कहे कि सरसों के दाने में उन्मत्त हाथी बाँधे हुए हैं; सिंहों के साथ मच्छर युद्ध करते हैं; कमल के डोड़े में सुमेरु पर्वत पाया है; कमल पर बैठकर भ्रमर रस पान कर गया और स्वम में मेघ गर्जता है, चित्रामणि के मोर नाचते हैं और जाग्रत की मूर्ति के ऊपर लिखा हुआ मोर मेघ को गर्जता देख के नृत्य करता है। जैसे ये सब असम्भव वार्ता है वैसे ही तुम्हारा कहना मुझको असम्भव भासता है। देवी बोली, हे लीले! यह मैंने तुझसे झूठ नहीं कहा। हमारा कहना कदाचित् असत् नहीं, क्योंकि यह आदि परमात्मा की नीति है कि महापुरुष असत् नहीं कहते। हम तो धर्म के प्रतिपादन करनेवाली है; जहाँ धर्म की हानि होती है वहाँ हम धर्म प्रतिपादन करती हैं और जो हम धर्म का प्रतिपादन न करें तो धर्म को और कैसे माने। हे लीले! जैसे सोये हुए को स्वप्न में त्रिलोकी भास आती है। सो अन्तःकरण में ही होता है और स्वप्न से जाग्रत् होती है वैसे ही मरना भी जान। जब जहाँ मृतक होता है वही जीव पुर्यष्टक आकाश रूप हो जाता है और फिर वासना के अनुसार उसको जगत् भास आता है। जैसे स्वप्न में जगत् भास आता है वह क्या रूप है? आकाश रूप ही है वैसे ही इसको भी जान। हे लीले! यह सब जगत् तेरे उसी अन्तःपुर में है, क्योंकि जगत् चित्ताकाश में स्थित है। जैसे आदर्श में प्रतिबिम्ब होता है वैसे ही चित्त में जगत् है और आकाश रूप है, इससे जो चित्त अन्तःपुर में हुआ तो जगत् भी हुआ। हे लीले! यह जगत् जो तुझको भासता है सो आकाशरूप है। जैसे स्वप्न और संकल्प नगर और कथा के अर्थ भासते हैं वैसे ही यह जगत् भी है और जैसे मृगतृष्णा का जल भासता है वैसे ही यह जगत् भी जान। हे लीले! वास्तव में कोई पदार्थ उपजा नहीं भ्रम से सब भासते हैं। जैसे स्वप्न में स्वप्नान्तर फिर उससे और स्वप्ना दीखता है वैसे ही तुमको भी यह सृष्टि भ्रम से भासी है। हे लीले! यह जगत् आत्मरूप