पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०२

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योगवाशिष्ठ।

देवी बोली, हे लीले! तब तेरा द्वैतश्रम नष्ट न हुआ था और अभ्यास करके अद्वैत को न प्राप्त हुई थी। जैसे धूप में छाया का सुख नहीं अनुभव होता वैसे ही तुझको अद्वैत का अनुभव न था। हे लीले! जैसे ऋतु का फल मधुर होता है। जैसे ज्येष्ठ आषाढ़ विदित हो और वर्षा नहीं आई वैसे ही तू थी—अर्थात् संसारमार्ग को लंघी थी पर अद्वैत तत्त्व को न प्राप्त हुई थी इससे आत्मशक्ति तुझको न प्रत्यक्ष हुई थी। आगे तेरा सत्संकल्प न था और अब तू सत्संकल्प हुई है। अब आने सत्संकल्प किया है कि तुझको ज्येष्ठशर्मा देखे इसी से वे सब तुझको देखते भये। अब तू विदूरथ के निकट जावेगी तो तेरे साथ ऐसा ही व्यवहार होगा। लीला बोली, हे देवि! इस मण्डप आकाश में मेरा भर्ता वशिष्ठ ब्राह्मण हुआ और फिर जब मृतक हुआ तब इसी लोक मण्डप आकाश में उसका पृथ्वी लोक फुरि पाया, जिससे पद्म राजा हो उसने चिरकाल पर्यन्त चारों द्वीपों का राज्य किया और जब फिर मृतक हुआ तब इसी मण्डप आकाश में उसको जगत् भासित होकर पृथ्वीपति हुआ उसका नाम विदूरथ हुआ। हे देवि! इसी मण्डप आकाश में जर्जरीभाव और जन्म मरण हुआ और अनन्त ब्रह्माण्ड इसमें स्थित हैं। जैसे सम्पुट में सरसों के अनेक दाने होते हैं वैसे ही इसमें सब ब्रह्माण्ड मुझको समीप ही भासते हैं और भर्ती की सृष्टि भी मुझको अब प्रत्यक्ष भासती है भर जो कुछ तुम आज्ञा करो सो मैं करूँ। देवी बोली, हे भूतल अरुन्धती। तेरे जन्म तो बहुत हुए हैं और अनेक तेरे भर्ती हुए हैं पर उन सबमें यह भर्ता इस मण्डप में है। एक वशिष्ठ ब्राह्मण था सो मृतक हो उसका शरीर तो भस्म हो गया है और फिर पद्म राजा हुआ उसका शव तेरे मण्डप में पड़ा है और तीसरा भर्ता संसार मण्डप में वसुधापति हुआ वह संसार समुद्र में भोगरूपी कलोल कर व्याकुल है। वह राजा में चतुर हुआ है पर आत्मपद से विमुख हुआ है। अज्ञान से जानता था कि मैं राजा हू; मेरी आज्ञा सबके ऊपर चलती है और मैं बड़े भोगों का भोगनेवाला और सिद्ध बलवान् हूँ। हे लीले! वह संकल्प विकल्परूपी रस्सी से बाँधा हुआ है। अब तू किस भर्ता के पास