पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०३

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उत्पत्ति प्रकरण।

चलती है। जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ मैं तुझको ले जाऊँ। जैसे सुगन्ध को वायु ले जाता है वैसे ही मैं तुझको ले जाऊँगी। हे लीले! जिस संसारमण्डल को तू समीप कहती है सो वह चिदाकाश की अपेक्षा से समीप भासता है और सृष्टि की अपेक्षा से अनन्त कोटि योजनों का भेद है। इसका वपु आकाशरूप है। ऐसी अनन्त सृष्टि पड़ी फुरती है। समुद्र और मन्दराचल पर्वत आदिक अनन्त हैं उनके परमाणु में अनन्त सृष्टि चिदाकाश के आश्रय फुरती है। चिद्अणु में रुचि के अनुसार सृष्टि बढ़े आरम्भ से दृष्टि आती है और बड़े स्थूल गिरि पृथ्वी दृष्टि आते हैं पर विचारकर तौलिये तो एक चावल के समान भी नहीं होती। हे लीले! नाना प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण पर्वत भी दृष्टि पाते हैं पर आकाशरूप है। जैसे स्वप्न में चैतन्य का किञ्चन नाना प्रकार का जगत् दृष्टि आता है वैसे ही यह जगत् चैतन्य का किञ्चन है। पृथ्वी आदि तत्वों से कुछ उपजा नहीं। हे लीले! आत्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है। जैसे नदी में नाना प्रकार के तरङ्ग उपजते हैं और लीन भी होते हैं वैसे ही आत्मा में जगजाल उपजा भौर नष्ट भी हो जाता है, पर आत्मसत्ता इनके उपजने और लीन होने में एक रस है। यह सब केवल आभासरूप है वास्तव कुछ नहीं। लीला बोली हे माता! अब मुझको पूर्व की सब स्मृति हुई है। प्रथम मैंने ब्रह्मा से राजसी जन्म आया और उससे आदि लेकर नाना प्रकार के जो अष्टशत जन्म पाये हैं वे सब मुझको प्रत्यक्ष भासते हैं। प्रथम जो चिदाकाश से मेरा जन्म हुआ उसमें में विद्याधर की स्त्री भई और उस जन्म के कर्म से भूतल में आकर मैं दुःखी हुई। फिर पक्षिणी भई और जाल में फंसी और उसके अनन्तर भीलनी होकर कदम्ब वन में विचरने लगी। फिर वनलता भई; वहाँ गुच्छे मेरे स्तन और पत्र मेरे हाथ थे। जिसकी पर्णकुटी में मैं लता थी वह ऋषीश्वर मुझको हाथ से स्पर्श किया करता था इसमें मैं मृतक होकर उसके गृह में पुत्री हुई। वहाँ जो मुझसे कर्म हो सो पुरुष ही का कर्म हो इसमें मैं बड़ी लक्ष्मी से सम्पन्न राजा हुई। वहाँ मुझसे दुष्टकर्म हुए इससे मैं कुष्ठरोगग्रसित बन्दरी होकर आठ वर्ष वहाँ