पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३४

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योगवाशिष्ठ।

होते हैं और राग, देष, तृष्णा और भूख से जलते रहते हैं। उनका कोई बड़ा सरदार विदूरथ के निकट आने लगा तब विदूरथ ने रूपका नामक अन चलाया और उससे महाभयानकरूप बड़े नख, केश, जिला, उदर, और होठ सहित नग्नरूप भैरव प्रकट होकर वैतालों को भोजन करने और सप्पर में रक्त भरकर पीने और नृत्य करने लगे और सबको दुःख देने लगे। तब सिद्ध ने क्रोध करके राक्षसरूपी अन चलाया जिससे एक कोटि भयानकरूप और कालंराक्षस पाताल और दिशाओं से निकले जिनकी जिह्वा निकली हुई और ऐसा चमत्कार करते थे जैसे श्याम मेघ में बिजली चमत्कार करती है। वे जिसको देखें उसको मुख में डालके ले जावें। उनको देखके विदूरथ की सेना बहुत डर गई, क्योंकि जिसके सम्मुख वे हँसके देखें वह भय से मर जावे। तब राजा विदूरथ ने अपनी सेना को कष्टवान् देख विष्णुअस्त्र चलाया जिससे सब राक्षस नष्ट हो गये। फिर राजा सिद्ध ने अग्नि नामक अब चलाया जिससे सम्पूर्ण दिशाओं में अग्नि फैल गई और लोग जलने लगे। तब राजा विदूरथ ने वरुणरूपी वाण चलाया जिससे जैसे सन्तों के सङ्ग से अज्ञानी के तीनों ताप मिट जाते हैं वैसे ही अग्नि का ताप मिट गया। जल से सब स्थान पूर्ण हो गये और सिद्ध की बहुत सेना जल में बह गई। तब सिद्ध ने शोषणमय अस्त्र चलाया जिससे सब जल सूख गया पर कहीं कहीं कीचड़ रह गई। उसने फिर तेजोमय बाण चलाया जिससे कीचड़ भी सूख गई और विदूरथ की सेना गरमी से व्याकुल होकर ऐसी तपने लगी जैसे मूर्ख का हृदय क्रोध से जलता है। तब विदूरथ ने मेघ नामक स्त्र चलाया जिससे मेघ वर्षने लगे और शीतल मन्द मन्द वायु चलने लगा जैसे आत्मा की और आये जीव का संसरना घटता जाता है वैसे ही विदूरथ की सेनाशीतल हुई। फिर सिद्ध ने वायुरूपी अस्त्र चलाया जिससे सूखे पत्र की नाई विदूरथ फिरने लगा। तब विदूरथ ने पहाइरूपी अस्त्र चलाया जिससे पहाड़ों की वर्षा होने लगी और वायु का मार्ग रुक गया और वायु के क्षोभ मिट जाने से सब पदार्थ स्थिरभूत हो गये। जैसे संवेदन से रहित चित्त शान्त होता है वैसे ही सब शान्त