पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३७

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उत्पत्ति प्रकरण।२३१

जैसे स्वप्न सृष्टि प्रत्यक्ष भासती है परन्तु वास्तव में कुछ नहीं वैसे ही इस जगत् को भी जानो। हे लीले! जीव जीव प्रति अपनी अपनी सृष्टि है परन्तु उसमें सार कुछ नहीं। जैसे केले के थम्भे में सार कुछ नहीं निकलता वैसे ही इस सृष्टि में विचार करने से सार कुछ नहीं निकलता-चित्तसंवेदन के फरने से भासता है। हे लीले! तेरे भत्ती पद्म की जो सृष्टि है सो वशिष्ठ ब्राह्मण के मण्डपाकाश में स्थित है अर्थात् विदूरथ का जगत् पद्म के हृदय में स्थित है वहाँ तेरा शरीर पड़ा है और राजा पद्म का भी शव पड़ा है। हे लीले! तेरे भर्त पद्म की सृष्टि हमको प्रदेशमात्र है। उस प्रदेशमात्र में अंगुष्ठ प्रमाण हृदयकमल है, उसमें तेरे भर्त का जीवाकाश है और उसी में यह जगत् फुरता है सो प्रदेशमात्र भी है और दूर से दूर कोटि योजन पर्यन्त है। मार्ग में वज्रसार की नाई तत्वों का भावरण है। उसको लाँघ के तेरे भर्ती की सृष्टि है। जहाँ वह शव पड़ा है उसके पास यह लीला जाय प्राप्त हुई। लीला ने पूछा, हे देवि! ऐसे मार्ग को लाँघ के वह क्षण में कैसे प्राप्त हुई और जिस शरीर से जाना था वह शरीर तो यहीं पड़ा है वह किस रूप से वहाँ गई और वहाँ के लोगों ने उसको देखके कैसे जाना है सो संक्षेप से कहो। देवी बोली, हे लोले। इस लीला के वृत्तान्त की महिमा ऐसी है जिसके धारे से यह जगत्भ्रम निवृत्त हो जाता है। उसे मैं संक्षेप से कहती हूँ। हे लीले! जो कुछ जगत् भासता है वह सब भ्रममात्र है। यह भ्रमरूप जगत् पद्म के हृदय में फुरता है। उसमें विदूरथ का जन्म भी भ्रममात्र है; लीला का प्राप्त होना भी भ्रम है; संग्राम भी भ्रमरूप है विदूरथ का मरना भी भ्रमरूप है और उसके भ्रमरूप जगत् में तुम हम बैठे हैं। लीला तू भी और राजा भी भ्रमरूप है और मैं सर्वात्मा हूँ—मुझको सदा यही निश्चय रहता है। हे लीले! जब तेरा भर्ती मृतक होने लगा था तब तुझसे उसका स्नेह बहुत था, इसलिये तू महासुन्दर भूषण पहिने हुए वासना के अनुसार उसको प्राप्त हुई है। हे लीले! जब जीव मृतक होता है तब प्रथम उसका मन्तवाहक शरीर होता है; फिर वासना से आधिभौतिक होता है उसी के अनुसार तेरा भी जब मृतक हुआ तब प्रथम उसका अन्तवाहक शरीर था, उस