पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५६

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योगवाशिष्ठ।

आधिभौतिकता बोध से नष्ट हो जाती है। जैसे शरत्काल का मेघ देखनेमात्र होता है तैसे ही ज्ञानवान् योगीश्वरों का शरीर देखनेमात्र होता है और अदृश्यरूप है; और जो शरीर भासता है पर उसको आकाशरूप ही भासता है। हे रामजी! यह देहादिक आत्मा में भ्रान्ति से दृष्टि आते हैं और आत्मज्ञान से निवृत्त हो जाते हैं। जैसे रस्सी के अज्ञान से सर्प भासता है, जब रस्सी का सम्यक्ज्ञान होता है तब सर्पभाव उसका नहीं रहता तैसे ही तत्त्वबोध होने से देह कहाँ हो और देह की सत्ता कहाँ रहे, दोनों का प्रभाव ही हो, केवल अदैत ब्रह्मसत्ता भासती है रामजी बोले; हे भगवन्! अन्तवाहक से आधिभौतिकरूप होता है वा आधिभौतिक से अन्तवाहकरूप होता है यह मुझसे कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मैंने तुमको बहुत बेर कहा है तुम मेरे कहे को धारण क्यों नहीं करते? मैंने आगे भी कहा है कि जो कुछ जीव हैं वह सब अन्तवाहक हैं आधिभौतिक कोई नहीं। आदि में जो शुद्ध संवित्मात्र से संवेदन आभास उठा है उससे इस जीव का संकल्परूप अन्तवाहक आदि शरीर हुआ। जब उसमें दृढ़ अभ्यास होता है तब वह संकल्परूपी शरीर आधिभौतिक होकर भासने लगता है। जैसे जल दृढ़ जड़ता से बरफरूप हो जाता है तैसे ही आमाद से संकल्प के अभ्यास से आधिभौतिकरूप हो जाता है। उस आधिभौतिक के तीन लक्षण होते हैं भारी शरीर होता है; कठोर भाव होता है और शिथिल होता है उससे अहंप्रतीति होती है इस कारण आधिभौतिक कहाता है। जब तत्त्व का बोध होता है तब आधिभौतिकता आकाशरूप हो जाती है। जैसे स्वप्न में देह से आदि लेकर जगत् बड़ा स्पष्टरूप भासता है और जब स्वप्न में स्वप्न का ज्ञान होता है कि यह स्वप्न है तब वह स्वप्न का शरीर लघु हो जाता है अर्थात् संकल्परूप हो जाता है; तैसे ही परमात्मा के बोध से आधिभौतिक शरीर निवृत्त हो जाता है और संकल्परूप भासता है। रामजी! आधिभौतिकता अबोध के अभ्यास से प्राप्त होती है। जब उलट के उसी अभ्यास का बोध हो तब आधिभौतिकता नष्ट हो जावे और अन्तवाहकता उदय हो। हे रामजी! जीव एक शरीर को