पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५९

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उत्पत्ति प्रकरण।

विदूरथ की लीला बोली, हे देवी! जब मेरा भर्ता संग्राम में घायल हुआ तब उसको देखके मैं मूर्च्छित हो गिर पड़ी परन्तु मृतक न भई। इसके अनन्तर फिर मुझको चेतना फुरी तो मैंने अपना वही शरीर देखा और उस शरीर से में आकाशमार्ग को उड़ी। जैसे वायु गन्ध लेकर उड़ता है वैसे ही एक कुमारी मुझे उड़ाकर परलोक में भर्ता के पास बैठा आप अन्तर्धान हो गई। मेरा भर्ता जो संग्राम में थका था वह आके सो रहा है और मैं सँभलती देखती मार्ग में आई हूँ, परन्तु मुझको तुम दृष्टि कहीं न आई। यहाँ कृपाकर तुमने दर्शन दिया है। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार सुनके देवीने प्रबुध लीला से कहा कि अब मैं राजा की जीवकला को छोड़ती हूँ। ऐसे कहके देवी ने नासिका के मार्ग से जीवकला को छोड़ दिया और जैसे कमल के भीतर वायु प्रवेश कर जावे अथवा शरीर में वायु प्रवेश कर जावे वैसे ही शरीर में जीवकला प्रवेश कर गई। जैसे समुद्र जल से पूर्ण होता है वैसे ही पुर्यष्टक वासना से पूर्ण थी। शरीर की कान्ति उज्जवल हो गई और जैसे वसन्त ऋतु में फूल और वृक्षों में रस फैलता है, अङ्गों में प्राणवायु फैल गई तब सब इन्द्रियाँ खिल आई जैसे वसन्तऋतु में फूल खिल पाते हैं। तब राजा फूलों की शय्या से इस भाँति उठ खड़ा हुआ जैसे रोका हुमा विन्ध्याचल पर्वत उठ भावे। तब दोनों लीला राजा के सम्मुख आ खड़ी हुई और राजा से कहा मेरे आगे तुम कौन खड़ी हो? प्रबुध लीला ने कहा, हे स्वामी! मैं तुम्हारी पूर्व पटरानी लीला हूँ; जैसे शब्द के अङ्ग अर्थ रहता है तैसे सदा तुम्हारे सङ्ग रहती हूँ। जब तुम यहाँ शरीरत्याग के परलोक में गये थे तब मुझसे तुम्हारा प्रतिस्नेह था, इससे मेरा प्रतिविम्ब यह लीला तुमको भासी थी। अब जो और कथा का वृत्तान्त है सो मैं तुमसे कहती हूँ। हे राजन्! हमारे ऊपर इस देवी ने कृपा की है जो हमारे शीशपर स्वर्ण के सिंहासन पर बैठी है। यह सरस्वती सर्व की जननी है; इसने हमारे ऊपरबड़ी कृपा की है और परलोक से तुम्हें ले आई है। हे रामजी! ऐसे सुनके राजा प्रसन्न हो उठ खड़ा हुआ और सरस्वती के चरणों पर मस्तक नवाकर बोला, हे सरस्वति! तुमको मेरा नमस्कार है। तुम सबकी हितकारिणी हो और तुमने मेरे ऊपर बड़ा