पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६१

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उत्पत्ति प्रकरण।

सहस्र वर्ष पर्यन्त जीवन्मुक्त होके राज किया और मन सहित षट्इन्द्रियों को वश करके यथालाभ संतुष्ट रहे और दृश्यभ्रम उनका नष्ट हो गया। ऐसा सुन्दर राजा था कि उसकी सुन्दरता की कणिका मानों चन्द्रमा थी और उसके तेज की कणिका मानों सूर्य थी निदान उसने प्रजा को भली प्रकार संतुष्ट किया और सब मजा राजा को देख के प्रसन्न हुई और विदेहमुक्त हो दोनों लीला और तीसरा राजा निर्वाण-पद को प्राप्त हुए।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने निर्वाण
वर्णनन्नाम द्विचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह दोनों कथा एक आकाशज ब्राह्मण की और दूसरी लीला की मैंने तुमको दृश्यदोष के निवृत्ति अर्थ विस्तारपूर्वक सुनाई है। हे रामजी! दृश्य की दृढ़ता जो हो रही है उसको त्याग करो। अब तुम इन दोनों इतिहासों को संक्षेपमात्र से सुनो। यह जगत् जो तुमको भासता है आभासरूप है—आदि से कुछ उपजा नहीं जो वस्तु सत् होती है उसके निवारण में प्रयत्न होता है और जो वस्तु असत् ही हो उसकी निवृत्ति होने में कुछ यत्न नहीं। इस कारण ज्ञानवान् को सब आकाशरूप भासता है और आकाश की नाईं स्थित होता है। हे रामजी! आदि जो ब्रह्मसत्ता में आभास संवेदन फुरा है सो ब्रह्मरूप होकर स्थित हुआ है। वह ब्रह्म पृथ्वी आदिक भूतों से रहित है। जो भाप ही आभासरूप हो उसके उपजाये जगत् कैसे सत् हो? हे रामजी! ज्ञानवान पुरुष आकाशरूप है। जिसको आत्मपद का साक्षात्कार हुआ उसको दृश्यभ्रम का अभाव हो जाता है और जो अज्ञानी है उसको जगत् भ्रम स्पष्ट भासता है। शुद्ध चिदाकाश का एक अणु जीव है और उस जीव अणु में यह जगत् भासता है, उस जगत् की सृष्टि में तुमको क्या कहूँ नीति क्या कहूँ; वासना क्या कहूँ और पदार्थों को क्या कहूँ? हे रामजी! जगत् कुछ उपजा नहीं; केवल संवेदन के फुरने से जगत् भासता है। शुद्ध संवित् में संवेदनरूपी नदी चली है और उसमें यह जगत् फुरता है। जब संवेदन को यत्न करके रोकोगे तब दृश्यभ्रम नष्ट हो जावेगा। प्रयत्न करना यही है कि संवेदन को अन्तर्मुख करे और