पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६८

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योगवाशिष्ठ।

संवेदन किंचित्ररूप होता है तब जगत् रूप हो भासता है और संवेदन के निस्स्पन्द हुए से जगत् नहीं भासता, पर आत्मसत्ता सदा एकरूप है। हे रामजी! जब संवेदन फुरने से रहित होकर आत्मपद में स्थित हो तर यदि संकल्परूप जगत् फिर भी भासे तो आत्मरूप ही भासे। जैसे वायु के स्पन्द और निस्स्पन्द दोनों रूप अपने पाप ही भासते हैं तैसे ही इसको भी भासता है। जैसे वायु में स्पन्दता वायुरूप स्थित है तैसे ही आत्मा में जगत् आत्मरूप से स्थित है। जैसे तेज अणु का प्रकाश जब मन्दिर में होता है तब बाहर भी प्रकट होता है तैसे ही जब केवल संवित् मात्र में संवेदन स्थित होता है तब फुरने में भी संवित् मात्र ही भासता है। हे रामजी! जैसे रसतन्मात्रा में जल स्थित होता है तैसे ही आत्मा में जगत् स्थित है। जैसे गन्धतन्मात्रा के भीतर सम्पूर्ण पृथ्वी स्थित है तैसे ही किञ्चनरूप जगत् आत्मा में स्थित है। वह निराकार और चिन्मात्ररूप आत्मसत्ता उदय और अस्त से रहित अपने आपमें स्थित है; प्रपञ्चभ्रम उसमें कोई नहीं। है रामजी! जो ज्ञानवान पुरुष हैं उनको दृढभूत जगत् भी आकाशरूप भासता है और जो ज्ञानी हैं उनको असवरूप जगत् भी सतरूप हो भासता है। हे रामजी! जैसा जैसा संवेदन चितसंवित् में फुरता है तैसा ही तैसा रूप जगत् हो भासता है। ये जितने तत्त्व मोर तन्मात्रा हैं वे सब चित्तसंवेदन के फुरने से स्थित हुए हैं; जैसी जैसी उससे स्फूर्ति होती है तेसी-तैसी होकर भासती है, क्योंकि आत्मा सर्वशक्तिमान है इसलिये जिस-जिस पदार्थ का फुरना फुरता है वही अनुभव में सवरूप होकर भासता है। पञ्चज्ञानेन्द्रिय और छठे मन का जो कुछ विषय होता है वह सब असरूप है और आत्मसत्ता इनसे अतीत है। विश्व भी क्या रूप है; जैसे समुद्र में तरङ्ग होते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् स्थित है। जैसे तेज और प्रकाश अनन्यरूप हैं तैसे ही आत्मा और जगत् अनन्यरूप हैं। जैसे थम्भे में शिल्पी पुतलियाँ देखता है; जैसे मृत्तिका के पिण्ड में कुम्हार वर्तन देखता है और जैसे भीत पर चितेरा रङ्ग की मूरतें लिखता है सो अनन्यरूप हैं तैसे ही परमात्मा में सृष्टि मनन्यरूप है। हे रामजी! जैसे मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल