पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७३

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उत्पत्ति प्रकरण।

ने समझाने के निमित्त नान प्रकार के विकल्पजाल कहे हैं आत्मा में विकल्प जाल कोई नहीं। जैसे जल और उसकी तरङ्ग में; सुवर्ण और भूषण में और अवयवी और अवयव में कुछ भेद नहीं तैसे ही आत्मा और शक्ति में कुछ भेद नहीं। हे रामजी! एक संवित् है और एक संवेदन है; संवित् वास्तव हे और संवेदन कल्पना है। जब संवित् में चिन्मात्र संवेदन फुरता है तो वह जैसे चेतता जाता है तैसे ही होकर स्थित होता है। शुद्ध चिन्मात्र संवित् में भीतर और बाहर कल्पना कोई नहीं। जब स्वभाव से किञ्चनरूप संवेदन होता है तब आगे कुछ देखता है और उसे देखने से नाना प्रकार के आकार भासते हैं पर वह और कुछ नहीं सर्व ब्रह्म ही है। हे रामजी! शक्ति और शक्तिमान में भेद भवानी देखते हैं और अवयवी और अवयव भेद भी कल्पते हैं। परमार्थ में कुछ भेद नहीं केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपमें स्थित है उसके आश्रय संकल्प आभास होता है। जब संकल्प की तीव्रता होती है तब वह सत् हो अथवा असत्, परन्तु उसही का ज्ञान होता है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बीजावतारो नाम
षट्चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४६॥

वशिष्ठ जी बोले, हे रामजी! यह जो सर्वगत देव, परमात्मा महेश्वर है यह स्वच्छ अनुभव, परमानन्दरूप और आदि अन्त से रहित है। उस शुद्धचिन्मात्र परमानन्द से प्रथम जीव उपजा, उससे चित्त उपजा और चित्त से जगत् उपजा है। रामजी ने पूछा, हे भगवान्! अनुभव परिपाम से जो शुद्ध ब्रह्मतत्त्व; सर्वव्यापी, द्वैत से रहित स्थित है उसमें तुच्छ रूप जीव कैसे सत्यता आता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ब्रह्म सदा भास है अर्थात् असत्रूप जगत् उससे सत् भासता है और स्वच्छ है अर्थात् आभासरूपी जगत् से रहित है। वृहत है अर्थात् बड़ा है बड़ा भी दो प्रकार का है; अविद्याकृत जगत् से जो बड़ा है सो भविद्या की बढ़ाई मिथ्या है। ब्रह्म बढ़ाई सर्वात्मकरूप है सो सर्वदेश, सर्वकास मोर सर्ववस्तु से पूर्ण है और अविद्याकृत बड़ाई देश, काल वस्तु से रहित निराकार है सो बानी का विषय है इससे वृहत् है और परम चेतन