पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७४

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योगवाशिष्ठ।

है। भैरव है अर्थात् जिसके भय से चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, वायु और जल अपनी मर्यादा में चलते हैं। परमानन्द है, अविनाशी है, सर्व ओर से पूर्ण है, सम है, शुद्ध है और अचिंत्य है अर्थात् वाणी से नहीं कहा जाता और क्षोभ से रहित चिन्मात्र है ऐसी आत्मसत्ता ब्रह्म का जो स्वभाव सम्पत है उसी का नाम जीव है अर्थात् जो शुद्ध चिन्मात्र में अहंफुरना है उसी का नाम जीव है। उस अनुभवरूपी दर्पण में अहं रूपी प्रतिविम्ब फुरने को जीव कहते हैं। जीव अपने शान्त पद को त्यागे की नाई स्थित होता है सो चिदात्मा ही फुरने के द्वारा आपको जीवरूप जानता है। जैसे समुद्र द्रवता से तरङ्गरूप होता है पर समुद्र और तरङ्ग में कुछ भेद नहीं; तैसे ही ब्रह्म ही जीवरूप है। जैसे वायु और स्पन्द और बरफ और शीतलता में कुछ भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म और जीव में कुछ भेद नहीं। हे रामजी! चित्तरूपी आत्मतत्व को ही अपने स्वभाव वश से माया करके संवेदन सहित जीवरूप कहते हैं वह जीव आगे फुरने के बड़े विस्तार धारण करता है। जैसे इन्धन से अग्नि के बहुत अणु होते हैं और बड़े प्रकाश को प्राप्त होता है तैसे ही जीव फुरने से जगतरूप को प्राप्त होता है। जैसे आकाश में नीलताभासती है सोनीलता कुछ भिन्न नहीं है तैसे ही अहंभाव से ब्रह्म में जीवरूप भासता है भौर अहंकृत को अङ्गीकार करके कल्पितरूप की नाई स्थित होता है। जैसे घन की शून्यता से आकाश में नीलता भासती है तैसे ही स्वरूप के प्रमाद से देश, काल वस्तु के परिच्छेद सहित अहंकाररूपी जीव भासते हैं पर वास्तव चिदाकाश ही चिदाकाश में स्थित है। जैसे वायु से समुद्र तरङ्गरूप होता है तैसे ही संवेदन फुरने से आत्मसत्ता जीवरूप होती है। जीव की चैत्योन्मुखत्वता के कारण इतनी संज्ञा है—चित्त, जीव, मन, बुद्धि, अहंकार माया प्रकृति सहित ये सब उसही के नाम हैं। उस जीव ने संकल्प से पञ्चभूत तन्मात्रा को चेता तो उन पञ्चतन्मात्रा के आकार से अणुरूप होकर स्थित हुआ; उससे अणु अनउपजे ही उपजे के नाई स्थित हुए और भासने लगे। फिर उसी चित्त संवेदन ने अणु अङ्गीकार करके जगत् को रचा और जैसे बीज से सत् अंकुर वृक्ष होता