पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७८

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योगवाशिष्ठ।

दूसरा चन्द्रमा भासता है तैसे ही अज्ञान से जगत् भ्रम भासता है। जैसे मद्यपान करके वृक्ष भ्रमते भासते हैं तैसे ही चित्त के संयोग से भ्रम करके जगत् द्वैत भासते हैं। जैसे बालक लीला करके भ्रम से जगत् को चक्र की नाई भ्रमता देखता है तैसे ही चित्त के भ्रम से जीव जगत् भ्रम देखता है। हे रामजी! जब चित्त देत नहीं चेतता तब यह द्वैतभ्रम मिट जाता है। जबतक चित्तसत्ता फुरती है तबतक नाना प्रकार का जगत् भासता है भोर शान्ति नहीं पाता और जब घन चेतनता पाता है तब शान्ति पाकर जगत् भ्रम मिट जाता है जैसे पपीहा बकता है और शान्तिमान् नहीं होता पर धन वर्षा से तृप्त होकर शान्त होता है तैसे ही जब जीव महाचैतन्य घनता को प्राप्त होता है तब शान्तिमान होता है तब वह चाहे व्यवहार में हो अथवा तूष्णीम रहे सदा शान्तिमान् होता है। हे रामजी! जब वित्त की चैतन्यता फुरती है तब जगत्भ्रम से नाना प्रकार के विकार देखता है और भ्रम से ही ऐसे देखता है कि मैं उपजा हूँ, अब बड़ा हुआ हूँ और अब मैं मरूँगा। पर वास्तव में जीव चेतन ब्रह्म से अनन्यस्वरूप है। जैसे वायु और स्पन्द में कुछ भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म और चैतन्यता में कुछ भेद नहीं, जैसे वायु सदा रहता पर जब स्पन्दरूप होता है तब स्पर्श करता भासता है तैसे ही चैतन्यता मिटती नहीं। ब्रह्म की चेतना हो तब जगत् भ्रम मिट जाता है और केवल ब्रह्मसत्ता ही भासती है। जैसे रस्सी के अज्ञान से सर्पभ्रम होता है और रस्सी के यथार्य जाने से सर्पभ्रम मिट जाता है तो रस्सी ही भासती है; तैसे ही ब्रह्म के अज्ञान से जगत् भ्रम भासता है और जब चित्त से दृढ़ चैत्यता भासती है तब भ्रम पदार्थ का ज्ञान होता है और तभी जगत् भ्रम भी मिट जाता है, केवल ब्रह्मसत्ता ही भासती है। हे रामजी! दृश्यरूपी व्याधिरोग लगा है और उस रोग का नाशकर्ता संविमात्र है। जब तक चित्त बहिर्मुख होकर दृश्य को चेतता है तब तक शान्त नहीं होता और जब सर्ववासना को त्यागकर अपने स्वभाव में स्थित अन्तर्मुख होगा तब उसही काल में मुक्तिरूप शान्त होगा इसमें कुछ संशय नहीं। जैसे रस्सी दूर के देखने से सर्प भासती है और