पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९१

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उत्पत्ति प्रकरण।

रामजी! ऐसे कहकर जब ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये तब सूची ने कहा ऐसे ही हमको दोनों तुल्य है। तब जैसे बीज से वृक्ष होता है तैसे ही क्रम से शरीर बढ़ गया। प्रथम प्रदेशमात्र हुआ, फिर हस्तमात्र हुआ, फिर वृक्षमात्र हुआ और फिर योजनमात्र हो गया। जैसे संकल्प का वृक्ष एक क्षण में बढ़ जाता है तैसे उसका शरीर बढ़ गया।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सूचीशरीरलाभो नाम
द्विपञ्चाशत्तमर्स्सगः॥५२॥

शिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे वर्षाकाल का बादल सूक्ष्म से स्थूल हो जाता है तैसे सूची सूक्ष्म शरीर से फिर कर्कटी राक्षसी हो गई। जैसे सर्प काञ्चली त्यागके फिर ग्रहण नहीं करता तैसे ही राक्षसी ने आत्मतत्त्व के कारण शरीर न ग्रहण किया। छः महीने तक पहाड़ के शिखर की नाई खड़ी रही और फिर पद्मासन बाँध संवित् सत्ता और निर्विकल्प पद में स्थित हुई। जब प्ररब्ध के वेग से जागा तब वृत्ति बहिर्मुख हुई और क्षुधा लगी; क्योंकि शरीर का स्वभाव शरीर पर्यन्त रहता है। तब विचारने लगी कि जो विवेकी हैं उनका में भोजन न करूँगी; उनके भोजन से मेरा मरना श्रेष्ठ है पर जो न्याय से भोजन करने योग्य है उसको खाऊँगी और शरीर भी नष्ट हो तो भी न्याय बिना भोजन न करूँगी। देहादिक सब संकल्पमात्र हैं; मुझे न मरने की इच्छा है और न जीने की। हे रामजी! जब एसे विचारकर सूची तूष्णीम् हो बैठी और राक्षसी स्वभाव का त्याग किया तब सूर्य भगवान ने आकाशवाणी से कहा; हे कर्कटीत जाके मूढ़ जीवों का भोजन कर। जब तू उनका भोजन करेगी तब उनका कल्याण होगा। मूढ़ों का उद्धार करना भी सन्तों का स्वभाव है। जो विवेकी पुरुष हैं उनको न खाना और जो तेरे उपदेश से ज्ञान पावें उनको भी न मारना, जो उपदेश से भी बोधात्मा न हों उनका भोजन करना-यह न्याय है? तब राक्षसी ने कहा हे भगवन्! तुमने अनुग्रह करके जो कहा है वही मुझसे ब्रह्माजी ने भी कहा था। ऐसे कहकर सूची हिमालय के शिखर से उतरी और जहाँ कि रात देश था और बहुत मृग और पशु रहते थे उनमें विचरने लगी।