पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९३

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उत्पत्ति प्रकरण।

है सो तेरा शब्द हमको भ्रमरी के शब्दवत् भासता है; हमको कुछ भय नहीं। हे राक्षसी! यह तेरा शरीर मायामात्र है इसलिये इस तुच्छ स्वभाव को त्यागके जो कुछ तेरा अर्थ है वह कह हम पूर्ण कर देंगे। तब राक्षसी ने उनके डराने को ग्रीवा और भुजा को ऊँचे करके प्रलयकाल के मेघों की नाई फिर शब्द किया कि जिसके नाद से पहाड़ भी चूर्ण हो जावें। निदान सब दिशाएँ शब्द से भर गई और वह बिजली की नाई नेत्रों को चमकाने लगी। उसकी मूर्ति देख राक्षस और पिशाच भी शङ्कायमान हों पर ऐसे भयानक स्वरूप को देख के भी उन दोनों ने धीरज रक्खा। मन्त्री ने कहा, भरी राक्षसी! ऐसे शब्द तू व्यर्थ करती है। इससे तो तेरा कुछ प्रयोजन न सिद्ध होगा इसलिये इस प्रारम्भ को त्यागके अपना अर्थ कह। बुद्धिमान पुरुष उस अर्थ को ग्रहण करते हैं जो अपना विषयभूत होता है और जो अपना विषयभूत नहीं होता उसके निमित्त वे यत्न नहीं करते। हम तेरे विषयभूत नहीं तुझ ऐसे तो हजारों हमने मार डाले हैं। हे राक्षसी! हमारे धैर्यरूपी पवन से तुझ ऐसी अनन्त मक्खियाँ तृणवत् उड़ती फिरती हैं। इससे अपने नीच स्वभाव को त्याग स्वस्थचित्त होके जो कुछ तेरा प्रयोजन हो सो कह। बुद्धिमान स्वस्थचित्त होके व्यवहार करते हैं; स्वस्थ हुए विना व्यवहार भी सिद्ध नहीं होता; यह आदि नीति है। हमारे पास से स्वप्न में भी कोई अर्थी व्यर्थ नहीं गया। हम सबका अर्थ पूर्ण करते हैं इसलिये तू भी हमसे अपना प्रयोजन कह दे। तब राक्षसी समझी कि यह कोई बड़े उदार आत्मा और उज्ज्वल आचारवान हैं और जीवों के समान नहीं। यह बड़े प्रकाशमान और धैर्यवान जान पड़ते हैं; उदारात्मा के से इनके वचन ज्ञानवानों से मिलते हैं अब मैंने इनको जाना है और इन्होंने मुझको जाना है इससे मुझसे इसका नाश भी न होगा। अविनाशी पुरुष ब्रह्मसचा में स्थित हैं इससे ज्ञानवान हैं। ऐसा निश्चय ज्ञान बिना किसी को नहीं होता परन्तु कदाचित् अज्ञानी हो तो फिर सन्देहे को अङ्गीकार करके पूछती हूँ। जो संदेहवान होकर बोधवान से नहीं पूछते वे भी नीच बुद्धि हैं। हे रामजी! ऐसे मन में विचार फिर उसने पूछा.