पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०४

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योगवाशिष्ठ।

के प्रकाश से प्रकाशते हैं—जैसे कमल और नीलोत्पल दोनों को सूर्य प्रकाशता है। कमल श्वेत है और नालोत्पल श्याम है, जहाँ श्वेत कमल है वहाँ नीलोत्पल का प्रभाव है और जहाँ नील कमल है श्वेत कमल का अभाव है पर दोनों का प्रकाशक सूर्य है; तेसे ही तम और प्रकाश दोनों का प्रकाशक चिदात्मा है। जैसे रात्रि और दिन दोनों सूर्य से सिद्ध होते हैं तैसे ही तम और प्रकाश दोनों आत्मा से सिद्ध होते हैं। जैसे दिन तव कहाता है, जब सूर्य उदय होता है और जब सूर्य अस्त होता है तब रात्रि होती है, आत्मा तैसे भी नहीं। आत्मप्रकाश सदा उदयरूप है और उदय अस्त से रहित भी है। उस बिना कुछ सिद्ध नहीं होता सबका प्रकाश चिद्अणु ही है। हे राक्षसी! उस अणु के भीतर विचित्र अनुभव अणु है। जैसे बसन्तऋतु में पत्र, फल फल और टास होते हैं तैसे ही चिद्अणु में सब अनुभव अणु होते हैं। जैसे एक बीज से अनेक वृक्ष क्रम से हो जाते हैं तैसे ही एक चिद्अणु से अनेक अनुभव अणु होते हैं। कई व्यतीत हुए हैं; कई वर्तमान हैं और कई होंगे। जैसे समुद्र में तरंग होते हैं सो कोई अब वर्त्तते हैं और कई भागे होंगे; तैसे ही आत्मा में तीनों काल की सृष्टि वर्तती है। हे राक्षसी! चिद्अणू आत्मा उदासीन है और भासीन की नाई स्थित होता है। सबका कर्ता भी है और भोक्ता भी है और स्पर्श किसी से नहीं किया जाता। जगत की सत्यता उसी से उदय होती है इस कारण वह सबका कर्ता है और सबका अपना भाप है इससे सबको भोगता है। वास्तव में न कुछ उपजा हे और न लीन होता है। चिन्मात्रसत्ता ज्यों की त्यों सदा अपने आपमें स्थित है और अखण्ड भोर सूक्ष्म है इस कारण किसी से स्पर्श नहीं किया जाता। हे राक्षसी! जो कुछ जगत् दीखता है वह सब आत्मरूप हैं; आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं। आत्मा और जगत् कहनेमात्र को दोनों नाम हैं वास्तव में एक आत्मा ही है। आत्मा का चमत्कारही जगतरूप हो भासता है। वास्तव में जगत् कुछ बना नहीं चिन्मात्रसत्ता सदा अपने आपमें स्थित है और जो कुछ कहना है वह उपदेश के निमित्त हे वास्तव में दूसरी कुछ वस्तु नहीं