पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०५

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उत्पत्ति प्रकरण।

बनी-तीनों जगत् चिदाकाशरूप हैं। हे राक्षसी! द्रष्टा जब दृश्य पद को प्राप्त होता है तब स्वाभाविक ही अपने भाव को नहीं देखता! जैसे नेत्र जब घट को देखता है तब घट ही भासता है अपना नेत्रत्वभाव नहीं दृष्टि आता; तैसे ही दृश्य के होते द्रष्टा नहीं भासता और जब दृश्य नष्ट होता है तब द्रष्टा भी अवास्तव है, क्योंकि द्रष्टा भी दृश्य के सम्बन्ध से कहते हैं। जब दृश्य नष्ट हो जावे तब द्रष्टा किसको कहिये। दृश्य विषयभूत वह होता है जो अदृश्य है; वह विषयभूत किसी का नहीं इस कारण उसमें और कोई कल्पना नहीं बनती और यह जगत् भी उसका ही भाभास है। हे राक्षसी! जैसे भोक्ता बिना भोग नहीं होते, तैसे ही दृष्टा विना दृश्य नहीं होता। जैसे पिता बिना पुत्र नहीं होता; तैसे ही एक बिना द्वैत नहीं होते। हे राक्षसी! द्रष्टा को दृश्य उपजाने की सामर्थ्य है। दृश्य को द्रष्टा उपजाने की सामर्थ्य नहीं, क्योंकि दृश्य जड़ है। जैसे सुवर्ण से भूषण बनता है पर भूषण से स्वर्ण नहीं बनता, तैसे ही द्रष्टा से दृश्य होता है; दृश्य से द्रष्टानहीं होता। हे राक्षसी। सुवर्ण में जैसे भूषण है तैसे ही द्रष्टा में जो दृश्य है वह भ्रमरूप है—इसी से जड़ा है। जब द्रष्टा दृश्य को देखता है तबदृश्य दृश्य भासता है दृष्टत्वभाव नहीं भासता और जब द्रष्टा अपने स्वभाव में स्थित होता है तब दृश्य नहीं भासता। जैसे जब तक भूषणबुद्धि होती है तब तक सुवर्ण नहीं भासता—भूषण ही भासता है और जब सुवर्ण का ज्ञान होता है तब सुवर्ण ही भासता है भूषण नहीं भासता। एक सत्ता में दोनों नहीं सिद्ध होते जैसे अन्धकार में किसी पुरुष को देखकर उसमें पशुत्वभ्रम हो तो जब तक पशुबुद्धि होती है तब तक पुरुष का निश्चय नहीं होता और जब निश्चय करके पुरुष जाना तब फिर पशुबुद्धि नहीं रहती, तेसे ही जब दृष्टा दृश्य को देखता है तब द्रष्टाभाव नहीं दीखता दृश्य ही भासता है। जैसे रस्सी के ज्ञान से सर्प का प्रभाव हो जाता है तैसे ही बोध करके दृश्य का आभाव होता है तब एक ही परमात्मसत्ता भासती है—द्रष्टासंज्ञा भी नहीं रहती। जैसे दूसरे की अपेक्षा से एक कहाता है और दूसरे के प्रभाव से एक एक नहीं कह सकते तैसे ही दृश्य के आभाव से द्रष्टा कहना नहीं रहता