पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०६

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योगवाशिष्ठ।

केवल शुद्ध संवित्मात्र पद शेष रहता जिसमें वाणी की गम नहीं। जैसे दीपक पदार्थों को प्रकाशता हे तैसे ही द्रष्टा दर्शन और दृश्य को प्रकाशता है और बोध से मातृ; मान और मेय त्रिपुटी लीन हो जाती है। जैसे सुवर्ण के जानने से भूषण की कल्पना का प्रभाव हो जाता है तैसे ही ज्ञान से त्रिपुटी का प्रभाव हो जाता है केवल शुद्ध अद्वैतरूप रहता है। हे राक्षसी! परमअणु जो अत्यन्त निस्स्वादरूप है वह सर्व स्वादों को उपजाता है। जहाँ रस सहित होता है वह चिद्अणु करके होता है जैसे आदर्श बिना प्रतिविम्ब नहीं होता तैसे ही सर स्वाद चिद्अणु बिना नहीं होते। सबको रस देनेवाला चिद्अणु ही है। आत्मभाव से सबका अधिष्ठान है और सूक्ष्म से सूक्ष्म है इससे निस्स्वाद है। वह चिद्अणु आपको छिपा नहीं सकता। सब जगत् को उसने ढाँप रक्खा है और भाप किसी से ढाँपा नहीं जाता। वह चिदाकाशरूप है; सब पदार्थों को सत्ता देनेवाला है और सबका आश्रयभूत है। जैसे घास के वन में हाथी नहीं छिपता तैसे ही आत्मा किसी पदार्थ से नहीं छिपता। हे राक्षसी! जिससे सब पदार्थ सिद्ध होते हैं और जो सदा प्रकाशरूप है वह मूखों को नहीं भासता-यह बड़ा आश्चर्य है! वह सदा अनुभवरूप है और यह सब जगत् उस ही से जीता है। जैसे वसन्तऋतु से फूल, फल, टास और पत्र फूलते हैं तैसे ही सब जगत् आत्मा से फूलता है। वही चिदात्मा जगवरूप होके भासता है और सर्वात्मभाव से सब उसके ही अवयव हैं। परमार्थ निखयव और निराकाररूप है उसमें कुछ उदय नहीं हुआ। हे राक्षसी! एक निमेष के अबोध से चिद्अणु में अनेक कल्पों का अनुभव होता है। जैसे एक क्षण के स्वप्न में पहले आपको बालक और फिर वृद्ध अवस्था देखने लगता है। उन कल्पों में जो निमेष है उसमें अनेक कल्प व्यतीत होते हैं क्योंकि आधिष्ठान सर्वशक्तिमान है जैसा संवेदन जहाँ फुरता है वैसा रूप हो भासता है जैसे स्वप्न में अभोक्ता को भोक्तृत्व का अनुभव होता है। तेसे ही निमेष में कल्प का अनुभव होता है। वासना से आवेष्टित अभोक्ता ही आपको भोक्ता देखता है जैसे स्वप्न में मनुष्य अपना मरण प्रत्यक्ष देखता है तैसे ही