पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०८

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योगवाशिष्ठ।

उसमें सुमेरु आदिक स्थित है। बड़ा आश्चर्य है कि माया से चिद् परमाणु में त्रिलोकियों की परम्परा स्थित हैं इसी से असंभवरूप और मायामय है। जैसे बीज में वृक्ष स्थित है तैसे ही चिद्अणु में जगत् स्थित है। जैसे शाखा, पत्र, फल और फल से बीज अपना बीजत्व नहीं त्यागता और अखण्ड रहता है तैसे ही चिद्अणु के भीतर जगत् का विस्तार है भोर अणुत्वभाव नहीं त्यागता-अखण्ड ही रहता है। ् हे राक्षसी! जैसे बीज परिणाम से वृक्षभाव में प्राप्त होता है तैसे ही चिद्अणु भी परिणाम से जगवरूप होता है। सब चिद्अणु का किञ्चनरूप है इससे ऐसे दिखाई देता है, वास्तव में न दैत है, न अद्वैत है, न बीज है—न अंकुर है न स्थूल है—न सूक्ष्म है, न कुछ उपजा है—न नष्ट होता है, न अस्ति है—न नास्ति है, न सम है—न असम है और न जगत् है—न अजगत् है; केवल चिदानन्द आत्मसत्ता अचिन्त्यचिन्मात्र अपने आपमें स्थित है, जैसी जैसी भावना होती है तैसी ही तैसी हो भासती है। हे राक्षसी! यह अनउदय ही संवेदन के वश से उदय होकर भासता है। जैसे बीज से वृक्ष अनन्यरूप अनेक हो भासता है तैसे ही एक आत्मा अनेकरूप हो भासता है। न कुछ उदय हुभा है और न मिटता है। हे राक्षसी! उस चिद्अणु में कमल की डंडी की ताँत सुमेरु की नाई स्थूल है। जैसे कमल की डंडी की ताँत से सुमेरु स्थूल है तैसे ही चिद्अणु से कमब की डंडी स्थूल है और दृश्यरूप है, पर चिद्अणु दृश्य और मन सहित षड्इन्द्रियों का विषय नहीं इस कारण ताँत से भी सूक्ष्म है उस चिद्अणु में अनन्त सुमेरु मादिक स्थित हैं सो क्या रूप है; जैसे आकाश में शून्यता होती है तैसे ही आत्मा में जगत् है। हे राक्षसी। जिसको आत्मा का बोध हुआ है उसको जगत् सुषुप्ति की नाई भासता है। वह आत्मसत्ता अद्वैतरूप और परिणाम से रहित है उसमें मुक्त पुरुष सदा स्थित है। परमार्थ से जगत् भी ब्रह्मरूप है, भिन्नभाव कुछ नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सुच्युपाख्याने परमार्थनिरूपणन्नाम
सप्तपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५७॥

 

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