पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०९

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उत्पत्ति प्रकरण।


वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार राजा के मुख से सुनकर कर्कटी ने वन के मर्कटीरूप जीवों के मारने की चपलता त्याग की और भीतर से शीतल होकर विश्राम पाया। जैसे वर्षाकाल में मोरनी प्रसन्न होती है, चन्द्रमा को देखके चन्द्रवंशी कमल प्रफुल्लित होते हैं और मेघ के शब्द से वगली गर्भवती होती हे तैसे ही राजा के वचन सुनके कर्कटी परमानन्द हुई और बोली बड़ा आश्चर्य है, बड़ा आश्चर्य है। हे राजन्! तुमने महापावन वचन कहे। इससे मैंने तुम्हारा विमल बोध देखा और अमृतसार और समरस से पूर्ण, शुद्ध और राग द्वेष भादिक मल से रहित है, जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा शीतल, अमृत से पूर्ण और शुद्ध होता है तैसे ही तुम्हारा बोध है। विवेकी जगत् में पूज्य है। जैसे चन्द्रमा को देखके कमलिनी प्रफुल्लित होती है; फूलों से मिलके वायु सुगन्धवान् होती है और सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी कमल प्रफुल्लित हो पाते हैं; तैसे ही सन्तों की सङ्गति से बुद्धि सुख पाती है। हे राजन्! वह कौन है जो दीपक हाथ में लेकर गढ़े में गिरे और वह कौन है जो दीपक हाथ में लेकर तम देखे? तैसे ही वह कौन है जो सन्तों की संगति करे ओर दुखी रहे। सन्तों की संगति से सभी दुःख नष्ट होते हैं। हे राजन्! तुम इस वन में किस प्रयोजन से पाये हो? तुम तो पूजने योग्य हो। राजा बोले, हे राक्षसी! मेरे नगर में जो मनुष्य रहते हैं उनको एक विसूचिका व्याधिरोग लगा है और उससे वे बहुत कष्ट पाते हैं। औषधि भी हम बहुत कर रहे हैं पर दुःख दूर नहीं होता। हमने सुना है कि एक राक्षसी जीवों को कष्ट देती है और उसका एक मन्त्र भी है उस मन्त्र के पढ़ने से निवृत्त हो जाती है। इसलिये उस तुमसी राक्षसियों के मारने के निमित्त मैं रात्रि को वीरयात्रा करने निकला हूँ। जो वह राक्षसीतू ही है तो हमाग तेरा संवाद भी हो चुका है उसका अङ्गीकार करके प्राणियों की हिंसा करना छोड़ और किसी को कष्ट न दे। राक्षसी बोली, हे राजन्! तुमने सत्य कहा। अब मैंने हिंसाधर्म का त्याग किया और अब किसी जीव को न मारुगी। राजा बोले हे राक्षसी! तूने तो कहा कि मैं अब किसी जीव को न मारुंगी पर तेरा आहार तो जीव हैं, जीवों को मारे बिना