पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१७

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उत्पत्ति प्रकरण।

पूछा कि हे भगवन्! ये जगत् गण कहाँ से आये और कैसे उत्पन्न हुए तब पितामहजी ने मुझसे इन्दु ब्राह्मण का आख्यान इस भाँति कहा। वे बोले हे मुनीश्वर! यह सब जगत् मन से उपजा है और मन से ही भासता है। जैसे जल में द्रवता के कारण नाना प्रकार के तरंग और चक्र फुरते हैं तैसे ही मन के फरने से सवजगत् फुरते हैं और मनरूप ही हैं। हे मुनीश्वर! पूर्व कल्प में मैंने एक वृत्तान्त देखा है उसे सुनो। एक समय जब दिन का क्षय हुआ तब मैं सम्पूर्ण सृष्टि को संहार एकाग्रभाव हो रात्रि को स्वस्थभाव होकर रहा। जब मेरी रात्रि व्यतीत हुई और मैं जागा तब मैंने उठकर विधिसंयुक्त सन्ध्यादिक कर्म किये और बड़े आकाश की ओर देखा कि तम और प्रकाश से रहित; शुन्यरूप और इतर से रहित व्यापित है। चिदाकाश में चित्त को मिलाके जब मैंने सर्ग के उपजाने का संकल्प चित्त में धारण किया तब मुझको शुद्ध सूक्ष्म चिदाकाश में सृष्टि दृष्टि आई। वह सृष्टि मुझे बड़े विस्तार सहित और परस्पर अदृष्टरूप दृष्टि आई है और हर सृष्टि में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र-तीनों देवता भी थे। देवता गन्धर्व किन्नर और मनुष्य, सुमेरु, मन्दराचल; केलास, हिमालय आदिक पर्वत पृथ्वी, नदियाँ, सातों समुद्रादिक सब सृष्टि के विस्तार हैं। वे दश सृष्टि हैं उनमें जो दश ब्रह्मा देले वे मानों मेरे ही प्रतिविम्ब कमल से उत्पन्न हुए हैं और राजहंस के ऊपर आरूढ़ हैं। उनकी भिन्न भिन्न सृष्टि है। उनमें नदी के बड़े प्रवाह चलते हैं; वायु आकाश में चलता है; सूर्य और चन्द्रमा उदय होते हैं देवता स्वर्ग में क्रीड़ा करते हैं, मनुष्य पृथ्वी में फिरते हैं। दैत्य और नाग पाताल में भोग भोगते हैं और कालचक्र फिरता है बारह मास उसकी बारह कीलें हैं और वसन्तादिक षट्ऋतु हैं। वासना के अनुसार शुभाशुभ आचार करके लोग नरक स्वर्ग भोगते हैं और मोक्ष फल पाते हैं। हर सृष्टि में सप्तदीप हैं; उत्पत्ति और प्रलय कल्प होते हैं और गङ्गाजी का प्रवाह जगत के गले में यज्ञोपवीत है। कहीं ऐसे सृष्टि स्थित हैं, कहीं सदा प्रकाश रहता है और कहीं अहंकार से स्थावर जङ्गम प्रजा हैं। विजली की नाई सृष्टि उपजती और मिट जाती है। जैसे वृक्ष के पत्र उपजते हैं और नष्ट हो जाते हैं वैसे ही और गन्धर्व