पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२१

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उत्पत्ति प्रकरण।

गायत्री सहित वेद मेरे आगे आ खड़े हैं और इस लोकपाल और सिद्धों के मण्डलों को पालनेवाला भी मैं ही हूँ। स्वर्ग, भूमि, पाताल, पहाड़, नदियाँ और समुद्र सब मैंने रचे हैं और महाबाहु वज्र के धारनेवाला और यज्ञों का भोक्ता इन्द्र मैंने ही रचा है। सूर्य मेरी ही आज्ञा से तपता है और जगत् की मर्यादा के निमित्त सब लोकपाल मैंने ही रचे हैं। जैसे गौ को गोपाल पालता हे तैसे ही लोकपाल मेरी बाबा पाकर जीवों को पालते हैं और समुद्र में तरङ्ग उपजते और मिट जाते हैं तैसे ही जगत् मुझसे उपजा है और फिर मुझमें ही लीन होता है। क्षण, दिन, मास, वर्ष, युग आदिक काल मेरे ही रचे हुए हैं और मैंने ही सब काल के नाम रक्खे हैं। मैं ही दिन को उत्पन्न करता हूँ और रात्रि को लीन कर लेता हूँ; सदा आत्मपद में स्थित हूँ और पूर्ण परमेश्वर मैं ही हूँ। हे ब्रह्माजी। इस प्रकार वे दशों भाई भावना धारण कर बैठे रहेमानों कागज पर मूर्ति लिख छोड़ी है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे ऐंदवसमाधिवर्णनन्नाम
द्विषष्टितमस्सर्गः॥६२॥

भानु बोले, हे भगवन्! इस प्रकार इन्द्र के दशों पुत्र पितामह की भावना धारण करके बैठे और जैसे जेठ, आषाढ़ में कमल के पत्र सूखकर गिर पड़ते हैं तैसे ही उनकी देह धूप और पवन से सूखकर गिर पड़ी। तब वनचर उनके शरीरों को आपस में बचकर भक्षण कर गये। जैसे वानर फल पकड़ते हैं और विदारण करते हैं तैसे ही इनके देह वे विदारने लगे तो भी उनकी वृत्ति ध्यान से छूट के बाह्यदेहादिक अभ्यास में न आई, ब्रह्मा की भावना में ही लगी रही। इस प्रकार जब चारों युग कामन्त हुमा और तुम्हारे कल्प दिन का क्षय होने लगा तब द्वादश सूर्य तपने लगे; पुष्कल मेघगरज के वर्षने लगे; बड़ाभूचाल आया; वायु चलने लगा; समुद्र उछलने लगे; सबजल ही जल हो गया और सब भूत क्षय हो गये। जब सबको संहार करके रात्रि को वे आत्मपद में स्थित हुये तब उनके शरीर भी नष्ट हो गये और पुर्यष्टक आकाश में आकाशरूप होके ब्रह्मा के सङ्कल्प को लेकर तीव्र भावना के वश से दशों सृष्टि सहित भिन्न-भिन्न