पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१६
योगवाशिष्ठ।

अपनी-अपनी सृष्टि के दश ब्रह्मा हुए। फिर जागकर देखते हैं कि आकाश में फुरते हैं। हे भगवन! उन दशों ब्राह्मणों के चित्त आकाश में ही सब सृष्टि स्थित हैं। उन दश सृष्टियों में से एक सृष्टि का सूर्य मैं हूँ। आकाश में मेरा मन्दिर है और क्षण, दिन, पक्ष, मास और युग मुझ ही से होते हैंइस क्रिया में मुझको उन्होंने लगाया है। हे भगवन्! इस प्रकार मैंने आपसे दशों ब्रह्मा और उनकी दशों सृष्टि कहीं, वे सृष्टि सब मनोमात्र हैं। अब जैसी भापकी इच्छा हो तैसी कीजिये। भिन्न-भिन्न जगत्जाल कल्पना जो इन्द्रजाल की नाई विस्तृत हुई हैं वे चित्त के भ्रम से भासती हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिपकरणे जगदचनानिर्वाणवर्णननाम
त्रिषष्टितमस्सर्गः॥६३॥

इतना कहकर ब्रह्माजी बोले, हे ब्राह्मण, ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ! इस प्रकार ब्रह्मा के सूर्य ब्रह्मा से कहकर जब तूष्णीम हुए तब उनके वचनों को विचार कर मैंने कहा, हे भानु! तुमने सृष्टि दश कहीं अब मैं क्या रचूं। यह तो दश सृष्टि हुई हैं और दश ब्रह्मा हैं अब मेरे रचने से क्या सिद्ध होगा? हे मुनीश्वर! जब इस प्रकार मैंने कहा तब सूर्य विचार कर बोले, हे प्रभो! आप तो निरिच्छित हैं भापको सृष्टि रचने में कुछ इच्छा नहीं, सृष्टि की रचना भापको विनोदमात्र है किसी कामना के निमित्त नहीं रचते। माप निष्कामरूप हैं। जैसे जल में सूर्य का प्रतिविम्ब होता है भोर जल बिना प्रतिविम्ब की कल्पना नहीं होती तैसे ही संवेदन करके आपसे सृष्टि की रचना होती है। भवानी को भाप सृष्टिकर्ता भासते हैं पर भाप तो सदा ज्यों के त्यों निष्क्रियरूप हैं। हे भगवन! आपको शरीर आदिक की प्राप्ति और त्याग में कुछ देष नहीं और उत्पत्ति और संहार की आपको कल्पना नहीं—लीलामात्र मापसे सृष्टि होती है। जैसे सूर्य से दिन होता है और सूर्य के अस्त होने से दिन लय हो जाता है पर सूर्य असंसक्तरूप है तैसे ही आपमें संवेदन के फुरने से सृष्टि होती है और संवेदन के अस्फुर हुए सृष्टि का खय होता है, पर आप सदा आसक्त हैं। जगत् की रचना आपका नित्यकर्म है और उस कर्म के त्याग करने से भापको कुछ भपूर्व वस्तु भी नहीं प्राप्त होती इससे जो कुछ आपका