पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१७
उत्पत्ति प्रकरण।

नित्यकर्म है उसे कीजिये। हे जगत्पति! जैसे निष्कलङ्क दर्पण प्रतिविम्य अङ्गीकार करता है तैसे ही महापुरुष यथा प्रात कर्म को कसंसक्न होकर अङ्गीकार करते हैं। जैसे ज्ञानवान को कर्म करने में कुछ प्रयोजन नहीं तैसे ही उसको करने में ओर न करने में कुछ प्रयोजन नहीं; करना न करना दोनों उसको सम हैं। इस कारण दोनों में आप सुषुतिरूप हैं। हे भगवन्! आप तो सदा सुषुप्तिरूप हैं भोर उत्थान किसी प्रकार नहीं। इससे आप सुषुप्तिरूप प्रबोध होकर अपने प्रकृत आचार कीजिये। जो इन्द्र ब्राह्मण के पुत्र की सृष्टि देखो तब भी विरुद्ध कुछ नहीं। जो ज्ञान दृष्टि से देखो तो एक ही अदैत ब्रह्म है और कुछ नहीं बनाऔर जो चित्दृष्टि से देखो तो संकल्परूप अनेक सृष्टि फुरती हैं। उसमें आस्था करनी क्या है? जो चर्मदृष्टि से देखो तोपापको सृष्टि भासती ही नहीं उनके साथ आपको क्या है; उनकी सृष्टि उन्हीं के चित्त में स्थित है और उनकी सृष्टि माप नाश भी न कर सकोगे क्योंकि जो इंद्रियों से कर्म होता है वह नष्ट हो सकता है, परन्तु मन के निश्चय को कोई नष्ट नहीं कर सकता। हे भगवन्! जो निश्चय जिसके चित्त मेंहद हो गया है उसको वही निवृत्त करे तो निवृत्त होता है और कोई निवृत्त नहीं कर सकता। देह नष्ट होने से निश्चय नहीं नष्ट होता जो चिरकाल का निश्चय हृढ़ हो रहा है उसका स्वरूप से नाश नहीं होता। हे भगवन्! जो मन में दृढ़ निश्चय हो रहा है वही पुरुष का रूप है; उसका निश्चय और किसी से नहीं होता। जैसे जल सींचने से पर्वत चलायमान नहीं होता तैसे ही चित्त का निश्चय और से चलायमान नहीं होता।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे पेन्दवनिश्चयकथननाम चतुः
षष्टितमस्सर्गः॥६४॥

भानु बोले, हे देवेश! इस पर एक पूर्व इतिहास है वह आप सुनिये। इन्द्राद्रुम नाम एक राजा था और उसकी कमलनयनी अहल्या रानी थी। उसके नगर में इन्द्र नामक एक ब्राह्मण का पुत्र बहुत सुन्दर और बलवान रहता था। एक समय उस रानी ने पूर्व की अहल्या गौतम की स्त्री और इन्द्र की कथा सुनी तब एक सहेली ने कहा, हे रानी! जैसे पूर्व अहल्या थी तैसे ही तुम भी हो और जैसा वह इन्द्र सुन्दर था तैसे ही