जब चैत्य का संयोग होता है तब संसारभ्रम होता है और ये जितनी संज्ञा तुमसे कही हैं सो चित्त के फरने से काकतालीयवत् अकस्मात् फुरी हैं। रामजी बोले, हे भगवन्! अद्वैत तत्त्व परमसंवित् आकाश में इतनी कलना कैसे हुई और उनमें अर्थरूप दृढ़ता कैसे हुई? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुद्धि संवित्मात्र सत्ता फुरने की नाई जो स्थित हुई उसका नाम मन है। जब वह वृत्ति निश्चयरूप हुई तोभाव प्रभाव पदार्थों को निश्चय करने लगी कि यह पदार्थ ऐसा है; यह पदार्थ ऐसा है—उस वृत्ति का नाम बुद्धि है। जब अनात्मा में आत्मभाव परिच्छिन्नरूप मिथ्या अभिमान हद हुआ तव उसका रूप अहंकार हुआ। वही मिथ्या प्रवृत्ति संसारबन्धन का कारण है, किसी पदार्थ को धावती करती है और किसी को त्याग करती है और बालक की नाई विचार से रहित ग्रहणा है उसका नाम चित्त है। वृत्ति का धर्म फुरना है उस फुरने में फल को पारोप करके उसकी और धावना और कर्तव्य का अभिमान फुरना कर्म है। पूर्व जो कार्य किये हैं उनको त्याग उनका संस्कार चित्त में धरकर स्मरण करने का नाम स्मृति है अथवा पूर्व जिसका अनुभव नहीं हुआ और हृदय में फुरे कि पूर्व मैंने यह किया था इसका नाम भी स्मृति है। जिस पदार्थ का अनुभव हो और जिसका संस्कार हृदय में दृढ़ होवे उसके अनुसार जो चित्त फुरे उसका नाम वासना है। हे रामजी! आत्मतत्त्व अद्वैत है उसमें विद्यमान देत विद्यमान हो भासता है इससे उसका नाम अविद्या है और अपने स्वरूप को भुखाकर अपने नाश के निमित्त स्पन्द चेष्टा करने और शुद्ध आत्मा में विकल्प उठाने का नाम मूल अविद्या है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-इन पाँचों इन्द्रियों को दिखानेवाला परमात्मा है और अदैततत्त् आत्मा में जिस दृढ़ जाल को रचा है उस स्पन्दकलना का नाम प्रकृति है और जो असत्य को सत्य और सत्य को असत्य की नाई दिखाती है वह माया कहाती है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का अनुभव करना कर्म है और जिससे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध होते हैं वह कर्ता, कार्य, कारण कहाता है। शुद्ध, चेतन सत्य को कलना की नाई प्राप्त होता है; उस फुरण वृत्ति को विपर्यय कहते हैं।