पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४१

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उत्पत्ति प्रकरण।

तब प्रलय होती है। आर्हत और ही प्रकार मानते हैं और बौद्ध और वैशेषिक ा आदि और और प्रकार से मानते हैं। पञ्चरात्रिक और प्रकार ही मानते हैं, परन्तु सही का सिद्धान्त एकही ब्रह्म आत्मतत्त्व है। जैसे एकही स्थान के अनेक मार्ग हों तो उन अनेक मार्गों से उसी स्थान को पहुँचता है तैसे ही अनेक मतों का अधिष्ठान आत्मसत्ता है और सवका सिद्धान्त एकही है, उसमें कोई वाद प्रवेश नहीं करता। हे रामजी! जितने मतवाले हैं वे अपने-अपने मत को मानते हैं और दूसरे का अपमान करते हैं। जैसे मार्ग के चलनेवाले अपने-अपने मार्ग की उपमा करते हैं—दूसरे की नहीं करते तैसे ही मन के भिन्न-भिन्न रूप से अनेक प्रकार जगत् को कहते हैं। एक मन की अनेक संज्ञाएँ हुई हैं। जैसे एक पुरुष को अनेक प्रकार से कहते हैं, स्नान करने से स्नानकर्ता, दान करने से दानकर्ता, तप करने से तपस्वी इत्यादि क्रिया करके अनेक संज्ञाएँ होती हैं अनेक शक्ति मन की कही हैं। मन ही का नाम जीव, वासना और कर्म हैं। हे रामजी! चित्त ही के फुरने से सम्पूर्ण जगत् हुआ है और मन ही के फुरने से भासता है। जब वह पुरुष चैत्य के फुरने से रहित होता है तब देखता है तो भी कुछ नहीं देखता। यह प्रसिद्ध जानिये कि जिस पुरुष को इन्द्रियों के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, इष्ट अनिष्ट में हर्ष शोक देता है उसका नाम जीव है। मन ही से सब सिद्ध होता है और सब अर्थों का कारण मन ही है। जो पुरुष चैत्य से छूटता है वह मुक्तरूप है और जिसको चैत्य का संयोग है वह बन्धन में बँधा है। हे रामजी! पुरुष मन को केवल जड़ मानते हैं उनको अत्यन्त जड़ जानों और जो पुरुष मन को केवल चेतन मानते हैं वे भी जड़ हैं। यह मन केवल जड़ नहीं और न केवल चेतन ही है, जो मन का एक ही रूप हो तो सुख दुःख आदिक विचित्रता न हों और जगत् की लीनता भी नहीं। जो केवल चैतन्य ही रूप हो तो जगत् का कारण नहीं हो सकता और जो केवल जड़प हो तो भी जगत् का कारण नहीं, क्योंकि केवल जड़ पाषाणरूप होता। जैसे पाषाण से कुछ क्रिया उत्पन्न नहीं होती तैसे ही केवल जड़ मन जगत् कारण नहीं