पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५८

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गोगवाशिष्ठ।

मन में निश्चय होता है वही सफल होता है। जैसे बालक मृत्तिका की सेना बनाता है और नाना प्रकार के उसके नाम रखता है वैसे ही मन भी संकल्प से जगत् रच लेता है। जैसे मिट्टी की सेना मिट्टी से भिन्ननहीं वैसे ही आत्मा में जो नाना प्रकार का जगत् कल्पा हे वह आत्मा से भिन्न नहीं। जैसे संकल्प में मन नाना प्रकार अर्थों को कल्पता है वैसे ही जाग्रत् जगत् भी भ्रम से कल्पा है। हे रामजी! एक गोपद में मन अनेक योजन रच लेता है और कल्प का क्षण और क्षण का कल्प रच लेता है। जैसा कुछ मन में तीन संवेग होता है वैसा ही होकर भासता है, उसको रचने में विलम्ब नहीं लगता; जो कुछ देश काल पदार्थ हैं वह मन से उपजे हैं और सबका कारणरूप मन ही है। जैसे पत्र, फूल, फल और टहनी वृक्ष से उपजे हैं वे वृक्षरूप हैं, जैसे समुद्र में लहरें होती हैं वे जलरूप हैं और जैसे अग्नि उष्णतारूप है, वैसे ही नाना प्रकार के स्वभाव मन से उपजे दृष्टि माते हैं और सब मनरूप हैं। हे रामजी! कर्ता-कर्म-क्रिया, द्रष्टा-दर्शन-दृश्य सब मन ही का फैलाव है। जैसे सुवर्ण से नाना प्रकार के भूषण भासते हैं और जब सुवर्ण का ज्ञान हुमा तब सब भूषण एक सुवर्ण ही भासता है, भूषण भाव नहीं भासता वैसे ही जब तक भात्मा का प्रमाद है तब तक द्वैतरूप जगत् भासता है और जब मात्मज्ञान होता है तब सब भ्रम मिट जाता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिमकरणे चित्तमाहात्म्यवर्णननामै
कोनाशीतितमस्सर्गः॥७६॥

वशिष्ठजी बोले हे रामजी! अब एक वृत्तान्त जो पूर्वकाल में हुआ है तुमको सुनाता हूँ। यह जगत् इन्द्रजालवत् है। जैसे मनरूपी इन्द्रजाल में यह जगत् स्थित है तैसे तुम सुनो। इस पृथ्वी में एक उत्तरपाद नाम देश था, उसमें एक बड़ा वन था और वहाँ नाना प्रकार के वृक्ष, फल, फल और ताल थे जिन पर मोर आदिक अनेक प्रकार के पक्षी शब्द करते थे। फूलों से सुगन्धे निकलती थीं और विद्याधर, सिद्धगण और देवता मानकर विश्राम करते थे, किन्नर गान करते थे औरमन्द मन्द पवन चलता था। निदान उस स्थान में महासुन्दर रचना बनी थी भोर